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________________ जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 211 अष्ट कर्म प्रवृतियों के रूप में परिणत होते हैं। इसे ही प्रकृति बंध कहते हैं। आत्मा के साथ बद्ध होने से पूर्व कार्मण वर्गणा के जो पुद्गल एकरूप थे, बद्ध होने के साथ ही उनमें नाना प्रकार के स्वभाव उत्पन्न हो जाते हैं। अर्थात् कर्मों की विविध प्रकृतियों ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र, अन्तराय आदि की उत्पत्ति को आगमिक भाषा में प्रकृति बन्ध कहते हैं । १० ____ 2. प्रदेश बन्ध : आत्मा के असंख्यात प्रदेश होते हैं, उन असंख्य प्रदेशों में से एक-एक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्म प्रदेशों का बन्ध होना प्रदेश बन्ध है। प्रदेश बन्ध योगों की चंचलता में तरतमता अनुसार न्यूनाधिक होता है। योगों की प्रवृत्ति मन्द होगी तो परमाणुओं की संख्या भी कम होगी तथा योगों की प्रवृत्ति तीव्र होगी तो जीव द्वारा ग्रहण किए जाने वाले कर्म पुद्गलों की संख्या भी अधिक होगी। अर्थात् कर्म बंध अधिक प्रबल होगा। इस प्रकार आत्म प्रदेशों और कर्म पुद्गलों के प्रदेशों का सम्बन्ध प्रदेश बन्ध है। 3. स्थिति बंध : प्रकृति बंध तथा प्रदेश बंध ये दोनों केवल योगों की प्रवृति से ही होते हैं। किन्तु योगों के साथ कषाय की जो प्रवृत्ति होती है, उससे आत्मा के साथ बंधे कर्म पुद्गलों में कालिक मर्यादा निर्मित होती है। यह काल मर्यादा ही आगमिक भाषा में स्थिति बंध कहलाता है। दूसरे शब्दों में आत्मा के द्वारा ग्रहण की गई ज्ञानावरण आदि कर्म पुद्गलों की राशि कितने काल तक आत्म प्रदेशों में रहेगी पश्चात उदय में आयेगी और अपना फल देगी, उसकी यह मर्यादा स्थिति बन्ध है। सामान्य रूप से वह स्थिति दो प्रकार बतायी गयी है - उत्कृष्ट स्थिति और जघन्य स्थिति। उत्कृष्ट स्थिति का अर्थ है - प्राप्त शरीर या भव में स्थित रहने का अधिकतम काल। जघन्य स्थिति का अर्थ है कम से कम काल तक शरीर या भव में अवस्थित रहना। सभी आठ कर्मों की उत्कृष्ट एवं जघन्य स्थिति उनके साथ संयुक्त कषायों की न्यूनाधिकता के आधार पर निर्धारित होती है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क तथा संज्वलन कषाय चतुष्क इन चारों कषाय चतुष्कों में से जिनका कर्म के साथ संयोग होता है, उसी प्रकार से कर्म का स्थिति बंध होता है। अनन्तानुबंधी चतुष्क की स्थिति यावजीवन की, अप्रत्याख्यानी चतुष्क की एक वर्ष की, प्रत्याख्यानी चतुष्क की चार माह की और संज्वलन कषाय की स्थिति एक पक्ष की है। ___4. अनुभाग बंध : अनुभाग का अर्थ है फलदान शक्ति। 'विपाकोऽनुभावः, स यथानाम। __नियमसार में इस प्रकार विवेचन किया गया है, कि शुभाशुभ कर्म की निर्जरा के समय सुख-दुःख रूप फल देने की शक्ति वाला बन्ध अनुभाग बन्ध है।” मूलाचार
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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