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________________ 212 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन में कहा है-ज्ञानावरणीयादि कर्मों का जो कषायादि-परिणाम जनित शुभ अथवा अशुभ रस है, वह अनुभाग बन्ध है। अनुभाग बन्ध दो प्रकार के होते हैं - तीव्र तथा मन्द। ये दोनों प्रकार के अनुभाग बन्ध शुभ प्रकृतियों में भी होते हैं और अशुभ प्रकृतियों में भी। संक्लेशपरिणामों से अशुभ प्रकृतियों में तीव्र अनुभाग बन्ध होता है तथा शुभ भावों से शुभ प्रकृतियों में तीव्र अनुभाग बन्ध होता है। इसी प्रकार शुभ भावों से अशुभ प्रकृतियों में मन्द अनुभाग बन्ध होता है और संक्लेशभावों से शुभ प्रकृतियों में मन्द अनुभाग बन्ध होता है। इस प्रकार कषायों की तरतमता से विपाक निर्धारित होता है। स्थिति बंध तथा अनुभाग बंध में योगों के साथ कषाय की प्रवृत्ति होने से ये संसार अभिवृद्धि के कारण हैं। 2. सत्ता : आबद्ध कर्म अपना फल प्रदान करके जब तक आत्मा से पृथक् नहीं हो जाते, तब तक वे आत्मा से ही सम्बद्ध रहते हैं। आत्मा में कर्म की सत्ता का विद्यमान होना ही सत्ता कहा जाता है। अर्थात् कर्म का बन्ध होने से फलोदय तक वे आत्मा में विद्यमान रहते हैं, उसे ही जैन दार्शनिक सत्ता कहते हैं। 3. उद्वर्तन-उत्कर्ष : आत्मा के साथ आबद्ध कर्म की स्थिति और अनुभाग बंध तत्कालीन परिणामों में प्रवाहमान कषाय की तीव्र एवं मंद धारा के अनुरूप होता है। उसके पश्चात् की स्थिति विशेष के कारण उस स्थिति एवं रस में वृद्धि होना उद्वर्तनउत्कर्ष है। अर्थात् बद्ध कर्म के मर्यादा काल एवं फल में वृद्धि होना। ___4. अपवर्तन अपकर्ष : पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति और अनुभाग को कालान्तर में नवीन कर्मबन्ध करते समय न्यून कर देना अपवर्तन-अपकर्ष हैं। अर्थात् बद्ध कर्म की काल मर्यादा व फल को कम कर देना। इस प्रकार उद्वर्तन उत्कर्ष से अपवर्तनअपकर्ष, बिल्कुल विपरीत है। उद्वर्तन और अपवर्तन के नियम यह प्रतिपादित करते हैं, कि आबद्ध कर्म की स्थिति और अनुभाग एकान्ततः नियत नहीं है, उनमें अध्यवसायों की प्रबलता से परिवर्तन भी हो सकता है। कभी-कभी ऐसा होता है, कि प्राणी अशुभ कर्म का बंध करके शुभ कार्य में प्रवृत्त हो जाता है। उसका असर पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों पर पड़ता है, जिससे उस लम्बी काल मर्यादा और विपाक शक्ति में न्यूनता हो जाती है। इसी प्रकार पूर्व में श्रेष्ठ कार्य करके पश्चात् निकृष्ट कार्य करने से पूर्वबद्ध पुण्य कर्म की स्थिति एवं अनुभाग में मन्दता आ जाती है। सारांश यह है कि, संसार को घटाने बढ़ाने का आधार पूर्वकृत कर्म की अपेक्षा वर्तमान अध्यवसायों पर विशेष निर्भर करता है। ___5. संक्रमण : एक प्रकार के कर्म-परमाणुओं की स्थिति का किसी दूसरे प्रकार के कर्म-परमाणुओं की स्थिति के रूप में परिवर्तित हो जाने की प्रक्रिया को संक्रमण कहते हैं। संक्रमण के चार प्रकार हैं- 1. प्रकृत्ति संक्रमण 2. स्थिति संक्रमण
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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