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________________ 210 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन कर्मों का विपाक सुखमय होता है। बंधे हुए कर्म यदि अशुभ होते हैं, तो उदय में आने पर उन कर्मों का विपाक दुःखमय होता है । गणधर गौतम ने महावीर से पूछा- भगवन अन्य यूथक इस प्रकार कहते हैं, कि 'सब जीव एवंभूत वेदना (जैसा कर्म बांधा है, वैसे ही) भोगते हैं'- यह किस प्रकार है? महावीर ने कहा- गौतम अन्य यूथिक जो इस प्रकार कहते हैं, वह मिथ्या है। मैं इस प्रकार कहता हूँ, कि कई जीव एवंभूत वेदना भोगते हैं, और कई अनएवंभूत वेदना भी भोगते हैं । "" स्थानांग में चतुर्भंगी हैं 1. एक कर्म शुभ है और उसका विपाक भी शुभ है, 2. एक कर्म शुभ है, किन्तु विपाक अशुभ है, 3. एक कर्म अशुभ है, किन्तु उसका विपाक शुभ है, 4. एक कर्म अशुभ है और उसका विपाक भी अशुभ है। 12 जिज्ञासा होती है, कि उसका मूल कारण क्या है? जैन कर्म सिद्धांत इसका समाधान करता है, कि इसका कारण कर्म की विभिन्न अवस्थाएँ हैं । मुख्य रूप से इन्हें ग्यारह भेदों में विभक्त किया जा सकता है 1. बन्ध, 2. सत्ता, 3. उद्वर्तन - उत्कर्ष, 4. अपवर्तन - अपकर्ष, 5. संक्रमण, 6. उदय, 7. उदीरणा, 8. उपशमन, 9. निधत्ति, 10. निकाचित व 11. अबाधाकाल । - 1. बन्ध : आत्मा के साथ कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध होना, नीर-क्षीरवत् एक मेक हो जाना बन्ध है । 43 गोम्मटसार में भी कर्मों के सम्बन्ध को बन्ध कहा गया है। " षट्दर्शन समुच्चय में भी इसी आशय से मिलता-जुलता लक्षण दिया गया है - शुभअशुभकर्मों का ग्रहण करना ही कर्मों का बन्ध इष्ट है ।" 145 निष्कर्ष यह है, कि जब आत्मा के प्रदेशों से पुद्गलद्रव्य के कर्म योग्य परमाणु मिल जाते हैं, तब आत्मा का अपना स्वरूप और शक्ति विकृत हो जाती है । वह अपनी शक्ति के अनुरूप कार्य करने में स्वतंत्र नहीं रहती, यही उसका बन्ध है । जीव के असंख्य प्रदेश हैं । मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग के निमित्त से जीव के असंख्यात प्रदेशों में कम्पन्न पैदा होता है । इस कम्पन के फलस्वरूप जिस क्षेत्र में आत्म प्रदेश हैं, उस क्षेत्र में विद्यमान अनन्तानन्त कर्मयोग्य पुद्गल जीव के एक-एक प्रदेश के साथ चिपक जाते हैं । सकषाय होने से जीव प्रदेशों के साथ इन कर्म पुद्गलों का इस प्रकार चिपक जाना (बन्ध जाना) ही बन्ध कहलाता है।" इस प्रकार आत्मप्रदेशों के साथ बन्ध को प्राप्त कार्मण वर्गणा के पुद्गल ही कर्म कहलाते हैं । इस संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ कर्म वर्गणा के पुद्गल न हो। प्राणी कायिक, मानसिक एवं वाचिक प्रवृत्ति करता है और कषाय के उत्ताप से उत्तप्त होता है । अतः वह कर्मयोग्य पुद्गलों को सर्वदिशाओं से ग्रहण करता है। जीव के कर्मबन्ध चार प्रकार से होता है 1. प्रकृति, 2. स्थिति, 3. अनुभव एवं 4. प्रदेश । 7 147 1 1. प्रकृति-बंध : योगों की प्रवृत्ति द्वारा ग्रहण किए गए कर्म परमाणु ज्ञान को आवृत करना, दर्शन को आच्छन्न करना, सुख-दुःख का अनुभव कराना आदि विभिन्न
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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