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________________ जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 209 बताए गए हैं - 1-7अरिहन्त, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत और तपस्वी, इन सबकी भक्ति, गुणगान तथा सेवा करना। 8. निरन्तर ज्ञान में उपयोग रखना। 9. निरतिचार सम्यक्त्व की आराधना करना। 10. अतिचार दोष रहित ज्ञानादि विनय का सेवन करना। 11. निर्दोष आवश्यक क्रियाएँ करना। 12. मूलगुण तथा उत्तर गुणों में अतिचार न लगाना। 13. सदा संवेग भाव और शुभ ध्यान में लगे रहना। 14. तपस्या करना। 15. सुपात्रदान देना। 16. दशविध वैयावृत्य (सेवा) करना। 17. गुरुदेव को समाधि प्राप्त हो, ऐसे कार्य करना। 18. नया-नया ज्ञान सीखना। 19. श्रुत की भक्ति बहुमान करना। 20. प्रवचन की प्रभावना करना। 7. गोत्र कर्म बन्ध के कारण : गोत्र कर्म बन्ध के आठ कारण हैं - 1. जाति, 2. कुल, 3. बल, 4. रुप, 5. तप, 6. श्रुत (ज्ञान), 7. लाभ, 8. ऐश्वर्य इनका मदअहंकार करना नीच गोत्र बन्ध के कारण है।” इस प्रकार गोत्र कर्मबन्ध का मूल कारण निरहंकारता एवं अहंकारता है। इसके अतिरिक्त तत्वार्थ सूत्र में परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, दूसरे के सद्गुणों का आच्छादन और स्वयं के सद्गुणों का प्रकाशन नीच गोत्र के बन्ध हेतु हैं तथा इसके विपरीत चारों गुण उच्चगोत्र बन्ध के कारण हैं। 8. अन्तराय कर्म बन्ध के कारण : अन्तराय कर्म बन्ध के मुख्यतः पाँच कारण बताए गए हैं - 1. दान, 2. लाभ, 3. भोग, 4. उपभोग, 5. वीर्य (उत्साह या सामर्थ्य) इन सबमें बाधा डालने से अन्तराय कर्म का बन्ध होता है।" 'विघ्नकरणमन्तरायस्य' अर्थात् शुभ कार्यों में विघ्न डालना। अन्तराय कर्म बन्ध का कारण है। इस प्रकार से जिन कर्मों का आत्मा ने बन्ध कर लिया है, वे अवश्य ही उदय में आते हैं और अपना फल देते हैं। किन्तु अनुकूल निमित्त कारण न हो तो बहुत से कर्म- प्रदेशों से ही उदय में आकर फल दिये बिना ही पृथक् हो जाते हैं। जब तक फल देने का समय नहीं आता तब तक बद्ध कर्मों के फल की अनुभूति नहीं होती। कर्मों के उदय में आने पर ही उनके फल का अनुभव होता है। बन्ध और उदय के बीच का काल अबाधा काल कहलाता है। बंधे हुए कर्म यदि शुभ होते हैं, तो उन
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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