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________________ 178 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन अर्थात् आत्मा ही अपने सुख-दुःख की कर्ता एवं विकर्ता है। आत्मा स्वयं जो अच्छे-बुरे कर्म करती है, वह उन्हीं का फल भोगती है। कोई भी अन्य शक्ति उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकती। केवल मनुष्य ही नहीं, वरन् प्रत्येक जीव अपना भाग्य निर्माता स्वयं है। इस प्रकार जैन धर्म ने जीव को अनेक कार्यों (कर्मों), सोच-विचार के लिए स्वतंत्र स्वीकार किया है। लेकिन यह स्वायत्तता अन्य जीवों की स्वतंत्रता को बाधित नहीं कर सकती। इसीलिए केवलज्ञानियों ने छद्मस्थ जीवों को अन्य जीवों के विचारों को भी स्वीकारने व सम्मान देने को कहा है। इसके लिए जैन दर्शन ने अनेकान्तवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन करके समन्वय को प्रोत्साहन दिया है। वस्तु अनेक धर्मा है। एक द्रव्य में अनेक गुण होते हैं। छद्मस्थ जीव एक साथ वस्तु के सारे गुणों को नहीं जान सकते। अतः एक ही वस्तु के सन्दर्भ में अनेक विचार उत्पन्न होते हैं। सभी को अपने ज्ञान की सीमाओं तथा दूसरे के ज्ञान की संभावनाओं को स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि सभी का ज्ञान एकांगी होता है। अतः अनेकान्तवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन करके जैन दर्शन ने जीवों के ज्ञान की सीमाओं को प्रकट करके उनमें सत्यांश को स्वीकार किया है। चूंकि उनका ज्ञान एकांगी होता है, अतः पूर्ण सत्य तो हो नहीं सकता। पूर्णता का ज्ञान तो केवलज्ञानी को ही हो सकता है। अतः अनेकान्तवाद व्यवहार का सिद्धान्त है, समन्वय और सत्य की विवक्षा का सिद्धान्त है। अतः यहाँ हम क्रम से कर्मसिद्धान्त और अनेकान्तवाद, इन दो दार्शनिक सिद्धान्तों को विस्तार से जानेंगे, जो विश्व को जैन दर्शन का अनमोल उपहार है। कर्म सिद्धान्त : भारतीय दार्शनिक चिन्तन में कर्मवाद का महत्वपूर्ण स्थान है। सुख-दुःख एवं अन्य प्रकार के सांसारिक वैचित्र्य के कारण की खोज करते हुए भारतीय चिन्तकों ने कर्म-सिद्धान्त का अन्वेषण किया। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, “कर्मफल का सिद्धान्त भारतवर्ष की अपनी विशेषता है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त खोजने का प्रयत्न अन्यान्य देशों के मनीषियों में भी पाया जा सकता है, परन्तु ऐसा कर्मफल का सिद्धान्त और कहीं भी नहीं मिलता।" सुप्रसिद्ध प्राच्य विद्या विशारद कीथ ने सन् 1909 की रॉयल एशियाटिक सोसायटी की पत्रिका में एक बहुत ही विचारपूर्ण लेख लिखा था। उसमें वे लिखते हैं-"भारतीयों के कर्मबन्धन का सिद्धान्त निश्चय ही अद्वितीय है। संसार की समस्त जातियों से उन्हें यह सिद्धान्त अलग कर देता है। जो कोई भी भारतीय धर्म और साहित्य को जानना चाहता है, वह यह उक्त सिद्धान्त को जाने बिना अग्रसर नहीं हो सकता। कर्म का स्वरूप : आत्मा के सम्बन्ध में विभिन्न दार्शनिकों की विभिन्न
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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