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________________ जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 179 धारणाएँ होने से कर्म के स्वरूप विवेचन में भी विभिन्नता होना स्वाभाविक है। तथापि कर्मवाद भारत की समस्त दार्शनिक एवं नैतिक विचारधाराओं में विद्यमान है। सभी दर्शनों में शब्दों का अन्तर होने पर भी उसके आधारभूत भाव में प्रायः समानता है। जैन दार्शनिकों ने जिसे कर्मवाद कहा है, उसे वेदान्त दर्शन ने अविद्या, प्रकति तथा माया कहा है। बौद्ध दर्शन ने उसे वासना और अविज्ञप्ति कहा है। सांख्य व योग दर्शन उसे आशय और क्लेश कहते हैं। न्याय और वैशेषिक दर्शन ने उसे धर्माधर्म संस्कार और अदृष्ट कहा है। मीमांसकों ने उसे अपूर्व कहा है। ___ कर्म के लिए विभिन्न विचारकों ने भिन्न-भिन्न नाम प्रयुक्त किये हैं, उसी प्रकार कर्म के स्वरूप के सम्बन्ध में भी सभी में मत-वैभिन्य है। बौद्ध दर्शन चित्तगत वासना को कर्म मानता है। वासना ही कार्य कारण भाव के रूप में सुख-दुःख का हेतु बनती है। भगवान बुद्ध ने कहा है-“कम्मा पुनब्भवो होती? कर्म से पुनर्भव होता है- जन्म-मरण की परम्परा चलती है। वैदिक धारणा में प्रतिपादित है___यादृशं क्रियते कर्म, तादृशं लभ्यते फलं-' जैसा कर्म किया जाता है, वैसा ही फल मिलता है। महाभारत में उल्लेख है, कि "जैसे हजारों गायों में भी बछड़ा अपनी माँ के पास पहुँच जाता है, वैसे ही पूर्वकृत कर्म अपने कर्त्ता का अनुगमन करते हैं।'" राम चरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कर्म को ही सृष्टि का मौलिक तत्व माना है। उन्होंने कहा है "कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करहि तसु फल चाखा।' न्याय दर्शन अदृष्ट (कर्म) को आत्मा का गुण मानता है और उसका फल ईश्वर के माध्यम से आत्मा को प्राप्त होता है। सांख्य दर्शन कर्म को प्रकृति का विकार मानता है। अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों का प्रकृति पर संस्कार पड़ता है, उस प्रकृतिगत संस्कार से ही कर्मों के फल प्राप्त होते हैं। मीमांसक यज्ञ आदि क्रियाओं को ही कर्म मानते हैं। पौराणिक मान्यतानुसार व्रत नियमादि धार्मिक अनुष्ठान कर्म है। वैयाकरणों की दृष्टि से कर्त्ता जिसे अपनी क्रिया के द्वारा प्राप्त करना चाहता है, वह कर्म है। गीता. उपनिषद् आदि ने अच्छे-बुरे कार्यों को कर्म कहा है। गीता में कहा है___"तेरा कर्म करने मात्र में अधिकार होवे, फल में कभी नहीं। तू कर्मफल में आसक्त भी मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी प्रीति न होवे।'' जैन दर्शन में कर्म की अवधारणा सबसे अलग है। जैन दर्शन के अनुसार कर्म संस्कार मात्र नहीं है, वरन् एक स्वतन्त्र तत्व है। मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग से जीव के द्वारा जो किया जाता है, वह कर्म है। अर्थात् आत्मा की रागद्वेषात्मक क्रिया से आकाश प्रदेशों में स्थित अनन्तानन्त कर्म योग्य सूक्ष्म पुद्गल चुम्बक की तरह आकृष्ट होकर आत्म प्रदेशों के साथ बद्ध हो जाते हैं, वे कर्म हैं। जैसे गर्म लोह पिण्ड पानी में रखने पर चारों ओर के पानी को खींचता है, वैसे ही
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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