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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
ऐसा जो कपटका जेतें निश्चय नहीं होय तेते आचार शुद्ध देखि वंदै तामैं दोष नाही, अर कपटका कोई कारणनै निश्चय होजाय तब नहीं वंदै, बहुरि केवलीगम्य मिथ्यात्वकी व्यवहारमैं चर्चा नाही छद्मस्थके ज्ञान गम्यकी चर्चा है । जो अपने ज्ञानका विषयही नाही ताका वाध निर्वाध करनेका व्यवहार नाही सर्वज्ञ भगवानकी भी यह ही आज्ञाहै, व्यवहारी जीवकू व्यवहारकाही शरणहै ॥ २६ ॥
आज इसही अर्थकू दृढ़ करता संता कहैं हैं;गाथा—णवि देहो वंदिज्जइ ण वि य कुलो ण वि य
जाइसंजुत्तो। को वंदमि गुणहीणोण हु सवणो णेय सावओ होइ ॥२७॥ संस्कृत-नापि देहो वंद्यते नापि च कुलं नापिच जातिसंयुक्तः । ___ के वंद्यते गुणहीनः न खलु श्रमणः नैव श्रावकः भवति २७
अर्थ-देहकू भी नांही वंदियेहै बहुीर कुलकू भी नांही वंदियेहै बहुरि जातियुक्तकू भी नांही वंदियेहै जातें गुणरहित होय ताकू कौन वंदे गुण विना प्रकट मुनि नहीं श्रावक भी नाहीं है ॥ ___ भावार्थ-लोकमैं भी ऐसा न्याय है जो गुणहीन होय ताकू कोऊ श्रेष्ठ मानें नाहीं, देह रूपवान होय तो कहा, कुल बडा होय तौ कहा, जाति बड़ी होय तौ कहा, जातें मोक्षमार्गमैं तौ दर्शन ज्ञान चारित्र गुण हैं इनिविनां जाति कुल रूप आदिक वंदनीक नाही हैं, इनि तैं मुनिश्रावकपणां आवै नांही, मुनिश्रावकपणां तौ सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तें होय है, तातै इनिके धारक हैं तेही वंदिवे योग्य हैं जाति कुल आदि वंदिवे योग्य नाही हैं ॥ २७ ।।
आगैं कहैं हैं जे तप आदिकरि संयुक्त हैं नितिकू वंदू हूं; १ 'कं वन्देगुणहोनं' षट्पाहुडमें ऐसी है।