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________________ अष्टपाहुडभाषा वचनिका । ३५ भावार्थ-जा रूपकू आणिमादिक ऋद्धिनिके धारी देवभी पगां पड़ें ताकू देखि मत्सरभावकरि नहीं वंदै हैं तिनिकै सम्यक्त्व काहेका ? ते सम्यक्त्व” रहितही हैं ॥२५॥ आगैं कहैं हैं जो असंयमी वंदवे योग्य नहीं हैं;गाथा-अस्संजदं ण वंदे वच्छविहीणोवि तो ण वंदिज्ज । दोण्णि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि २६ छाया-असंयतं न वन्देत वस्त्रविहीनोऽपि स न वन्येत । द्वौ अपि भवतः समानौ एकः अपि न संयतः भवति ॥२६॥ अर्थ-असंयमीकू नाही वंदिये बहुरि भावसंयम नहीं होय अर वाह्य वस्त्ररहित होय सो भी वंदिबे योग्य नाही जाते ये दोऊ ही संयमरहित समान हैं, इनिभै एकभी संयमी नाही ॥ __ भावार्थ-जो गृहस्थ भेष धाया है सो तौ असंयमी है ही, बहुरि जो बाह्य नग्नरूप धारण किया अर अंतरंग भावसंयम नाही हैं तो वह भी असंयमीही है, तातें ये दोऊही असंयमी है, तातैं दोऊ ही वंदवे योग्य नाहीं । इहां आशय ऐसा है जो ऐसै मति जानियो-जो आचार्य यथाजातरूपकू दर्शन कहते आ. हैं सो केवल नग्नरूपही यथाजातरूप होगा, जातें आचार्य तो बाह्य अभ्यंतर सर्व परिग्रहसूं रहित होय ताकू यथाजातरूप कहै हैं । अभ्यंतर भावसंयम विना बाह्य नग्न भये तो किछू संयमी होयह नांही ऐसैं जानानां । इहां कोई पूछे-बाह्य भेष शुद्ध होय आचार निर्दोष पालताकै अभ्यंतर भावमैं कपट होय ताका निश्चय कैसे होय, तथा सूक्ष्म भाव केवलीगम्यहैं, मिथ्यात्व होय ताका निश्चय कैसे होय, निश्चयविना वंदनेकी कहा रीति ? ताका समाधान
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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