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________________ अष्टपाहुडभाषा वचनिका । गाथा-सम्मत्तविरहिया णं सुदृ वि उग्गं तवं चरंता णं । ___ण लहंति वोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडीहिं ॥५॥ छाया-सम्यक्त्वविरहिता णं सुष्टु अपि उग्रं तपः चरंतो णं । न लभन्ते बोधिलाभ अपि वर्षसहस्रकोटिभिः ॥५॥ अर्थ:-जे पुरुष सम्यक्त्वकरि विरहित हैं ते सुष्ठु कहिये भले प्रकार उग्र तपकू आचरते हैं तोऊ ते बोधि कहिये सम्यग्दर्शनज्ञानधारित्रमयी अपनां स्वरूप ताका लाभकू नाही पावैं हैं, जो हजार कोडि वर्ष ताई तप करै तौऊ स्वरूपकी प्राप्ति नहीं होय । इहां गाथामैं 'ण' ऐसा शब्द दोय जायगां है सो प्राकृतमैं अव्यय है, याका अर्थ वाक्यका अलंकार है ॥ भावार्थ-सम्यक्त्व विना हजार कोडि वर्ष तप करै तौऊ मोक्षमार्गकी प्राप्ति नाही । इहां हजार कोडि कहनेतें एतेही वर्ष नहीं जाननें, कालका बहुतपणां जणाया है । तप मनुष्यपर्यायहीमैं होय है तातें मनुष्यकालभी थोडा है तातें तप कहनेंतें ये भी वर्ष बहुतही कहिये ॥५॥ __ आगें ऐसैं पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्व विना चारित्र तप निष्फल कहे, अब सम्यक्त्वसहित सर्वही प्रवृत्ति सफल है ऐसैं कहैं हैं;गाथा-सम्मत्तणाणदंसणवलवीरियवड़माण जे सव्वे । कलिकलुसपावरहिया वरणाणी होंति अइरेण ॥६॥ छाया-सम्यक्त्वज्ञानदर्शनवलवीर्यवर्द्धमानाः ये सर्वे । कलिकलुषपापरहिताः वरज्ञानिनः भवंति अचिरेण ॥ अर्थ-जे पुरुष सन्यक्त्व ज्ञान दर्शन बल वीर्य इनि करि पर्द्धमान हैं भर कलिकलुषपाप कहिए इस पंचमकालके मलिन पापकार
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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