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________________ १८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित तिनिकै तौ शीघ्रही फेरि चारित्रका ग्रहण होय है मोक्ष होय है, बहुरि दर्शन श्रद्धाः भ्रष्ट होय तिनिकै फेरि चारित्रका ग्रहण कठिन होय है तातें निर्वाणकी प्राप्ति दुर्लभ होय है, जैसैं वृक्षका स्कंधादिक कटि जाय अर मूल वण्या रहै तौ स्कंधादिक शीघ्रही फेरि होय फल लागै, अर मूल उपडि जाय तब स्कंधादिक कैसे होय; तैसैं धर्मका मूल दर्शन जाननां ॥ ३ ॥ ___ भागें सम्यग्दर्शन” भ्रष्ट हैं अर शास्त्रनिकू बहोत प्रकार जानहैं तो हू संसारमैं भ्रमै हैं, ऐसें ज्ञानौं भी दर्शन• अधिक कहैं हैं;गाथा-सम्मत्तरयणभट्टा जाणंता वहुविहाई सत्थाई । आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव ॥४॥ छाया-सम्यक्त्वरत्नभ्रष्टाः जानंतो बहुविधानि शास्त्राणि । आराधनाविरहिताः भ्रमति तत्रैव तत्रैव ॥४॥ अर्थ-जे पुरुष सम्यक्त्वरूप रत्नकरि भ्रष्ट हैं अर बहुत प्रकारके शास्त्रनिकू जानें हैं तौऊ ते आराधनाकरि रहित भये संते जिस संसारविही भ्रमैं हैं । दोय वार कहनेंतें बहुत भ्रमणां जनाया हैं॥ भावार्थ-जे जिनमतकी श्रद्धातें भ्रष्ट हैं अर शब्द न्याय छंद अलंकार आदि अनेक प्रकारके शास्त्रनिकू जानैं हैं तो हू सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तपरूप आराधनां तिनिकै नांही होय है यातें कुमरणकरि चतुर्गतिरूप संसारविर्षे ही भ्रमण करें हैं मोक्ष नाही पावै हैं जाते सम्यक्त्व विना ज्ञान• आराधना नाम नहीं कहिये ॥ ४ ॥ आगें कहैं हैं, तप हू करै अर सम्यक्त्वरहित होय तौ तिनिकै स्वरूपका लाभ नहीं होय;
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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