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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
रहित हैं ते सर्व ही थोडे ही कालमैं वरज्ञानी कहिये केवल ज्ञानी हो हैं ॥
भावार्थ — इस पंचमकालमैं जड वक्र जीवनिके निमित्त करि यथार्थ मार्ग अपभ्रंश भया है तिसकी वासना रहित भये जे जीव यथार्थ जिनमार्ग के श्रद्धानरूप सम्यक्त्वसहित ज्ञान दर्शन अपना पराक्रम बलकूं न छिपाय करिअर अपनां वीर्य जो शक्ति ताकरि वर्द्धमान भये संते प्रवर्तें हैं ते थोडे ही कालमैं केवलज्ञानी होय मोक्ष पावें हैं ॥ ६ ॥
आगैं कहैं हैं, जो सम्यक्त्वरूप जलका प्रवाह आत्माकै कर्मरज नांही लागनें दे है;
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गाथा –सम्मत्तसलिलपवहो णिच्चं हियए पवट्टए जस्स । कम्मं वालयवरणं बंधुच्चिय णास तस्स ॥ ७ ॥ छाया - सम्यक्त्व सलिलप्रवाहः नित्यं हृदये प्रवर्त्तते यस्य । कर्म वालुकावरणं बद्धमपि नश्यति तस्य ॥ ७ ॥
अर्थ —जा पुरुषका हृदयकै विषै सम्यक्त्वरूप जलका प्रवाह निरन्तर प्रवर्त्ते है तापुरुषकै कर्म सो ही भया वालूरजका आवरण सो नांही लागै है, बहुरि ताकै पूर्वै लग्या कर्मका बंध सो भी नाशकूं प्राप्त होय है ॥
भावार्थ सम्यक्त्व सहित पुरुषकै कर्मके उदयतैं भये जे रागादिक भाव तिनिका स्वामीपणां नांही है तातैं कषायनिकी तीव्र कलुषतातें रहित परिणाम उज्ज्वल होय हैं, ताकूं जलकी उपमा है । जैसैं जलका प्रवाह जहां निरन्तर वहै तहां बालू रेत रज लागै नांही जैसैं सम्यक्त्ववान जीव कर्मके उदयकूं भोगता भी कर्म नांही लिपै है । अर वाह्य व्यवहार अपेक्षा ऐसा भी भावार्थ जाननां - जाकै निरंतर हृदय मैं