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________________ ३७० पंडित जयचंद्रजी झावड़ा विरचित - आगें लिंग धारि कुक्रिया करै ताकूं प्रगट कहै है; - गाथा - चदि गायदि तावं वायं वाएदि लिंगरूवेण । सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ ४ ॥ संस्कृत - नृत्यति गायति तावत् वाद्यं वादयति लिंगरूपेण । सः पापमोहितमतिः तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः ॥ ४ ॥ अर्थ — जो लिंगरूप करि नृत्य करे है गावै है वादित्र बजावै है, सो कैसा है— पापकरि मोहित है बुद्धि जाकी ऐसा है, सो तिर्यचयोनि है, पशु है; श्रमण नांही ॥ भावार्थ — लिंग धारि भाव विगाडि नाचनां गावनां बजावनां इत्यादि क्रिया करै सो पापबुद्धि है पशु है अज्ञानी है, मनुष्य नांही, मनुष्य होय तौ श्रमणपणा राखे । जैसैं नारद भेषधारी नाचे गावै है बजावै है तैसें यह भी भेषी भया तब उत्तमभेषकूं लजाया, तातैं लिंग धारि ऐसा होनां युक्त नांही ॥ ४॥ I आगें फेरि कहै है;—– गाथा - समूहदि रक्खेदि य अहं झाएदि बहुपयत्तेण । सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥५॥ संस्कृत-समूहयति रक्षति च आर्त्तं ध्यायति बहुप्रयत्नेन । सः पापमोहितमतिः तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः ॥ ५ ॥ अर्थ — जो निग्रंथ लिंग धारि अर परिग्रहकूं संग्रहरूप करे है अथ वा ताकी वांछा चिंतवन ममत्व करे है, बहुरि तिस परिग्रहकी रक्षा करे है ताका बहुत यत्न करे है, ताकै अर्थि आर्त्तध्यान निरन्तर ध्यावै है; सो कैसा है- पापकरि मोहित है बुद्धि जाकी ऐसा तिर्येचयोनि है पशु है अज्ञानी है, श्रमण तौ नांही श्रमणपणांकूं बिगाडै है, ऐसैं जाननां ॥५॥ आर्गै फेरि कहै है; -
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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