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________________ अष्टपाहुडमें लिंगपाहुडकी भाषावचनिका । ३७१ गाथा - कलहं वादं जुवा णिचं बहुमाणगव्विओ लिंगी । asia rti पाओ करमाणो लिंगिरूवेण ॥ ६ ॥ संस्कृत - कलहं वादं द्यूतं नित्यं बहुमानगर्वितः लिंगी । व्रजति नरकं पापः कुर्वाणः लिंगिरूपेण ॥६॥ अर्थ — जो लिंगी बहुत मानकषायकरि गर्ववान भया निरंतर कलह करे है वाद करे है द्यूतक्रीडा करे है सो पापी नरककूं प्राप्त होय है, कैसा है लिंगी- पाप करि ऐसैं करता संता वर्त्ते है ॥ भावार्थ - जो गृहस्थरूप करि ऐसी क्रिया करै है ताकूं तौ यह उराहनां नांही जातैं कदाचित् गृहस्थ तौ उपदेशादिकका निमित्त पाय कुक्रिया करता रह जाय तौ नरक न जाय । बहुरि लिंग धारि तिसरूपकरि कुक्रिया करै तौ ताकूं उपदेश भी न लागै, यातें नरककाही पात्र होय है ॥६॥ आगे फेरि कहै है; - गाथा - पोओपहदभावो सेवादि य अवभु लिंगिरूवेण । सो पाव मोहिमदी हिंडदि संसारकांतारे ॥७॥ संस्कृत - पापोपहतभावः सेवते च अब्रह्म लिंगिरूपेण । सः पापमोहितमतिः हिंडते संसारकांतारे ॥७॥ अर्थ—जो पापकरि उपहत कहिये घात्या गया है आत्मभाव जाका ऐसा भया संता लिंगीका रूपकरि अब्रह्म सेवै है, सो पापकरि मोहित है बुद्धि जाकी ऐसा लिंगी संसाररूपी कांतार जो वन ताविषै भ्रमै है | भावार्थ — पहले तौ लिंगधारण किया अर पीछें ऐसा पाप परिणाम भया जो व्यभिचार सेवनें लग्या, ताकी पापबुद्धिका कहा कहना ? ताका संसारमैं भ्रमण न क्यों न होय ? जाकै अमृतहू जहररूप परिणमै ताके १ इस छंदका प्रथम द्वितीयपाद यति भंग है ।
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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