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________________ अष्टपाहुडमें लिंगपाहुडकी भाषावचनिका। ३६९ मतके केई भेष है तिनिकू भी धारि जो कुक्रिया करै सो भी निंदाही पावै, तातै भेषधारि कुक्रिया न करनां ऐसा जनाया है ॥ २ ॥ ___ आनें कहै है जो जिनका लिंग जो-निग्रंथ दिगंबररूप ताहि ग्रहणकरि जो कुक्रिया करि हास्य करावै सो पापबुद्धि है;--- गाथा--जो पावमोहिदमदी लिंगं घेत्तूण जिणवरिंदाणं । उवहसइ लिंगिभावं लिंगिम्मिय गारदो लिंगी ॥३॥ संस्कृत-यः पापमोहितमतिः लिंगं गृहीत्वा जिनवरेन्द्राणाम् । उपहसति लिंगिभावं लिंगिषु नारदः लिंगी ॥३॥ अर्थ-जो जिनवरेन्द्र कहिये तीर्थकरदेवका लिंग नग्न दिगंबररूपकू ग्रहण करि अर लिंगीपणांका भावकू उपहसै है हास्यमात्र गिनै है; सो कैसा है-लिंगी कहिये भेषी तिनिविर्षे नारद लिंगी है तैसा है । अथवा या गाथाका चौथा पादका पाठान्तर ऐसा है-“लिंग णासेदि लिंगीणं" याका अर्थ—यह जो लिंगी जो अन्य केई लिंगका धारी तिनिका लिंगकू भी नष्ट करै है, ऐसा जनावै है जो लिंगी सर्व ऐसेही हैं, कैसा है लिंगीपापकरि मोहित है बुद्धि जाकी ॥ भावार्थ-लिंगधारी होय अर पापबुद्धिकरि किछू कुक्रिया करै तब तानैं लिंगीपणां हास्यमात्र गिण्यां, किछू कार्यकारी गिण्या नाही । लिंगीपणा तौ भावशुद्ध सोहै था सो भाव विगडे तब बाह्य कुक्रिया करने लग्या तब यानैं तिस लिंगकू लजाया अर अन्य लिंगीनिका लिंगकू भी कलंक लगाया, लोक कहने लगे-जो लिंगी ऐसेही होय हैं । अथवा जैसैं नारदका भेष है तामैं वह स्वइच्छानुसार स्वच्छंद जैसैं प्रवत् है तैसैं यह भी भेषी ठहय । तातें आचार्य ऐसा आशय धारि कह्या है जो-जिनेन्द्रका भेषकू लजावनां योग्य नाही ॥ ३ ॥ अ. व. २४
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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