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________________ अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका। २९३ संस्कृत-आरुह्य अंतरात्मानं बहिरात्मानं त्यक्त्वा त्रिविधेन । ध्यायते परमात्मा उपदिष्टं जिनवरेन्द्रैः ॥७॥ अर्थ--बहिरात्माकू मन वचन कायकरि छोडि अन्तरात्माका आश्रय लेयकरि परमात्माकू ध्यायजे, यह जिनवरेन्द्र तीर्थकर परमदेवनि उपदेश्या है ॥ ___ भावार्थ-परमात्माका ध्यान करनेका उपदेश प्रधान करि कह्या है यात्रै मोक्ष पावै है ॥ ७॥ ___ आण बहिरात्माकी प्रवृत्ति कहै है;गाथा-वहिरत्थे फुरियमणो इंदियदारेण णियसरुवचओ। णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मूढदिट्टीओ ॥८॥ संस्कृत-बहिरर्थे स्फुरितमनाः इन्द्रियद्वारेण निजस्वरूपच्युतः। निजदेहं आत्मानं अध्यवस्यति मूढदृष्टिस्तु ॥८॥ ___ अर्थ—मूढदृष्टी अज्ञानी मोही मिथ्यादृष्टी है सो बाह्य पदार्थ जे धन धान्य कुटुंब आदि इष्ट पदार्थ तिनिविर्षे स्फुरित है तत्पर है मन जाका, बहुरि इंद्रियका द्वार करि अपनें स्वरूप” च्युत है इन्द्रियनिकू ही आत्मा जानै है, ऐसा भया संता अपनां देह है ताहीकू आत्मा जानै है निश्चय करै है; ऐसा मिथ्यादृष्टी बहिरात्मा है ॥ भावार्थ-ऐसा बहिरात्माका भाव है ताकू छोडनां ॥ ८॥ आगें कहै है जो--मिथ्यादृष्टी अपनां देह सारिखा पर देहकू देखि तिसकू परका आत्मा मानै है;गाथा-णियदेहसरित्थं पिच्छिऊण परविग्गहं पयत्तेण । अच्चेयणं पि गहियं झाइज्जइ परमभाएण ॥९॥
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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