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पंडित जयचंद्रजी छाबड़ा विरचित
अरहंत होय है, पीछें सिद्धपदकूं पावै है, इाने दोऊहीं परमात्मा कहिये है | अरहंत तौ भावकलं करहित हैं अर सिद्ध द्रव्यभावरूप दोऊ प्रकार कलंक रहित है, ऐसें जाननां ॥ ५ ॥
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आर्गै तिस परमात्माका विशेषणकरि स्वरूप कहै है, - गाथा - मलरहिओ कलचत्तो अगिंदिओ केवलो विसुद्धप्पा | परमेही परमजिणो सिवंकरो सास सिद्ध ||६ ॥ संस्कृत - मलरहितः कलत्यक्तः अनिंद्रियः केवलः विशुद्धात्मा । परमेष्ठी परमजिनः शिवंकरः शाश्वतः सिद्धः ||६||
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अर्थ — परमात्मा ऐसा है - प्रथम तौ मलरहित है द्रव्यकर्म भावकर्मरूप मलकार रहित है, बहुरि कलव्यक्त कहिये शरीरकरि रहित है, बहुरि अनिंद्रिय कहिये इन्द्रियनिकरि रहित है अथवा अनिंदित कहिये काहू प्रकार निंदायुक्त नांही है सर्व प्रकार प्रशंसा योग्य है, बहुरि केवल कहिये केवलज्ञानमयी है, बहुरि विशुद्धात्मा कहिये विशेष कारे शुद्ध है आत्मा स्वरूप जाका, ज्ञानमैं ज्ञेयके आकार प्रतिभा से है तौहू तिनिस्वरूप न हो है तथापि तिनितैं रागद्वेष नांही है, बहुरि परमेष्ठी है परमपदविषै ति है, बहुरि परम जिन है सर्व कर्मकूं जीते है. बहुरि शिवंकर है भव्य जीवनिकै परम मंगल तथा मोक्षकूं करे है, बहुरि शाखता है अविनाशी है, बहुरि सिद्ध है अपनें स्वरूपकी सिद्धिकरि निर्वाणपदकूं प्राप्त भये हैं । भावार्थ — ऐसा परमात्मा है, ऐसे परमात्माका ध्यान करै सो ऐसाही होय है ॥ ६ ॥
आगे सो ही उपदेश करे है;
गाथा - आरुहवि अंतरप्पा बहिरप्पा छंडिऊण तिविहेण । झाइज्जइ परमप्पा उवहं जिणवरिंदेहिं ॥७॥