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________________ २९४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितसंस्कृत-निजदेहसदृशं दृष्टा परविग्रहं प्रयत्नेन । अचेतनं अपि गृहीतं ध्यायते परमभावेन ॥९॥ अर्थ-मिथ्यादृष्टी पुरुष अपनां देह सारिखा परका देहकू देखिकरि यह देह अचेतन है तौऊ मिथ्याभावकरि आत्मभावकरि बडा यत्न करि परका आत्मा ध्यावै है ॥ __भावार्थ-बहिरात्मा मिथ्यादृष्टीकै मिथ्यात्वकमका उदयकरि मिथ्याभाव है सो आपनां देहळू आपा जानैं है तैसेंही परका देह अचेतन है. तौऊ ताकू परका आत्मा जानि ध्यावै है मानै है तामैं बडा यत्न करै है यातें ऐसे भावकू छोडनां यह तात्पर्य है ॥ ९॥ - आमैं कहै है जो ऐसीही मांनितें पर मनुष्यदिविर्षे मोह प्रवत है;--- गाथा-सपरज्झवसाएणं देहेसु य अविदिदत्थमप्पाणं । सुयदाराईविसए मणुयाणं बड़ए मोहो ॥१०॥ संस्कृत-स्वपराध्यवसायेन देहेषु च अविदितार्थमात्मानम् । सुतदारादिविषये मनुजानां वर्द्धते मोहः ॥१०॥ अर्थ--ऐसे देहवि. स्वपरका अध्यवसाय कहिये निश्चय ताकरि मनुष्यनिकै सुत दारादिक जीवनिविर्षे मोह प्रवतें है, कैसे हैं मनुष्यअविदित कहिये नांही जान्यां है अर्थ कहिये पदार्थ ताका आत्मा कहिये स्वरूप ज्यां ॥ भावार्थ-जिनि मनुष्यनि- जीव अजीव पदार्थका स्वरूप यथार्थ न जाण्यां तिनिकै देहविर्षे स्वपराव्यवसाय है अपनां देहकू आपका आत्मा जानैं है अर परका देहकू परका आत्मा जानैं हे तिनिकै पुत्र स्त्री आदि कुटुंबवि मोह ममत्व होय है, जब जीव अजीवका स्वरूप जानें तब देहळू अजीव मानें, आत्मकू अमूर्तीक चेतन जानैं आपनां आत्माकू
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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