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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अजीवका स्वरूप कह्या है तैसा ताका श्रद्धान आगम अनुसार करनां । ऐसे अजीव पदार्थका स्वरूप जांणि अर इनि दोऊनिके संयोगरौं अन्य आश्रव बंध संवर निर्जरा मोक्ष इनि भावनिकी प्रवृत्ति होय है, तिनिका आगमअनुसार स्वरूप जांणि श्रदान किये सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होय है, ऐसें जाननां ॥ १४८॥ __ आनें कहै है जो—यह जीव ज्ञान दर्शन उपयोगमयी है तोऊ अनादि पुद्गल कर्मसंयोग” याकै ज्ञान दर्शनकी पूर्णता न होय है तातें अल्प ज्ञानदर्शन अनुभवमैं आवै है, अर तिनिमैं भी अज्ञानके निमित्ततें इष्ट अनिष्ट बुद्धिरूप राग द्वेष मोहभावकरि ज्ञान दर्शनमैं कलुषतारूप सुख दुःखादिक भाव अनुभवनमैं आवै है, यह जीव निजभावनारूप सम्यग्दर्शनकू प्राप्त होय है तब ज्ञानदर्शन सुख वीर्यके घातक कर्मनिका नाश करै है, ऐसा दिखावै है;गाथा-दंसणणाणावरणं मोहणियं अंतराइयं कम्मं ।
णिवइ भवियजीवो सम्मं जिणभावणाजुत्तो॥१४९॥ संस्कृत-दर्शनज्ञानावरणं मोहनीयं अन्तरायकं कर्म ।
निष्ठापयति भव्यजीवः सम्यक् जिनभावनायुक्तः१४९ अर्थ—सम्यक् प्रकार जिनभावनाकरि युक्त भव्यजीव है सो ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय अंतराय ये च्यार घातिकर्म हैं तिनिकू निष्ठापन करै है संपूर्ण अभाव करै है ॥
भावार्थ-दर्शनका घातकतौ दर्शनावरण कर्म है, ज्ञानका घातक ज्ञानावरण कर्म है, सुखका घातक मोहनीय कर्म है, वीर्यका घातक अंतरायकर्म है, तिनिका नाशकू सम्यक् प्रकार जिनभावना कहिये जिन आज्ञा मांनि जीव अजीव आदि तत्त्वका यथार्थ निश्चयकरि श्रद्धावान