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________________ २७० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित___ भावार्थ-जेते व्यवहार मोक्षमार्गके अंग हैं गृहस्थकै तौ दानपूजादिक अर मुनिकै महाव्रत शीलसंयमादिक, तिनि) सर्वमैं सार सम्यग्दर्शन है यारौं सर्व सफल है, ता” मिथ्यात्वकू छोड़ि सम्यग्दर्शन अंगीकार करनां यह प्रधान उपदेश है ॥ १४७ ॥ आर्गे कहै है जो सम्यग्दर्शन होय है सो जीव पदार्थका स्वरूप जांनि याकी भावना करै ताका श्रद्धानकरि अर आपकू जीव पदार्थ जानि अनुभवकरि प्रतीति करै ताकै होय है सो यह जीव पदार्थ कैसा है ताका स्वरूप कहै है;गाथा-कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइनिहणो य । दसणणाणुवओगो णिदिहो जिणवारदेहिं ॥१४८॥ संस्कृत-कर्ता भोक्ता अमूर्तः शरीरमात्रः अनादिनिधनः च। दर्शनज्ञानोपयोगः जीवः निर्दिष्टः जिनवरेन्द्रैः१४८ अर्थ-जीवनामा पदार्थ है सो कैसा है-कर्ता है, भोगी है अमूर्तीकहै, शरीर प्रमाण है, अनादिनिधन है, दर्शन ज्ञान है उपयोग जाकै ऐसा है सो जिनवरेन्द्र जो सर्वज्ञदेव वीतराग तिसनैं कह्या है । भावार्थ-इहां जीवनामा पदार्थकै छह विशेषण कहै तिनिका आशय ऐसा जो-कर्ता कह्या सो निश्चयनयकरि तौ अपनां अशुद्ध रागादिक भाव तिनिका अज्ञान अवस्थामैं आप कर्ता है अर व्यवहारनयकरि पुद्गल कर्म जे ज्ञानावरण आदि तिनिका कर्ता है अर शुद्धनयकरि अपने शुद्धभावका कर्ता है । बहुरि भोगी कह्या सो निश्चयनयकरि तौ अपनां ज्ञानदर्शन मयी चेतनभावका भोक्ता है, अर व्यवहारनयकार पुद्गलकर्मका फल जो सुख दुःख आदिक ताका भोक्ता है । बहुरि अमूर्तीक कह्या सो निश्चयकरि तौ स्पर्श. रस गंधवर्ण शब्द ये पुद्गलके गुण
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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