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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २६९.
आगैं सम्यग्दर्शनसहित लिंग है ताकी महिमा कहै है ;गाथा - जह तारायण सहियं ससहरबिंबं खमंडले विमले । भाविय तेववयविमलं जिंगलिंगं दंसणविसुद्धं ॥ १४६ ॥ संस्कृत - यथा तारागणसहितं शशघरबिंबं खमंडले मिले । भावतं तपोव्रतविमलं जिनलिंगं दर्शनविशुद्धम् १४६
अर्थ — जैसैं निर्मल आकाशमंडलविषै तारानिके समूह सहित चंद्रमाका बिंब सोहै है तैसैंही जिनशासनविषै दर्शनकरि विशुद्ध अर भावित किये जे तप अर व्रत तिनिकरि निर्मल जिनलिंग है सो सोहै है |
भावार्थ—जिनलिंग कहिये निर्ग्रन्थ मुनिभेष है सो यद्यपि तपत्र -- निकार सहित निर्मल है तौऊ सम्यग्दर्शन विनां सोहै नहीं, या सहित होय तब अत्यंत शोभायमान होय है ॥ १४६ ॥
आगैं कहै है जो ऐसैं जाणिकरि दर्शनरत्नकूं धारो, ऐसैं उपदेश करे
है; -
गाथा - इय गाउं गुणदोसं दंसणरयणं धरेह भावेग |
सारं गुणरयगाणं सोवाणं पढम मोक्खस्स || १४७॥ संस्कृत - इति ज्ञात्वा गुणदोषं दर्शनरत्नं धरत भावेन ।
सारं गुणरत्नानां सोपानं प्रथमं मोक्षस्य ॥ १४७॥ अर्थ — हे सुने ! तू इति कहिये पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्वके तौ गुण अर मिथ्यात्वके दोष तिनहिं जाणिकरि सम्यक्त्वरूप रत्न है ताहि भाव -- र, कैसा है सम्यक्त्वरत्न - गुणरूप जे रत्न हैं तिनिमैं सार है उत्तम है, बहुरि कैसा है-मोक्षरूप मंदिरका प्रथम सोपान है चढ़नेकी पहली पैडी है |
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१ - मुद्रित संस्कृत प्रतिमें ' तह वयविमलं' ऐसा पाठ है जिसकी संस्कृत
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तथा व्रतविमलं ' है। २ इस गाथाका चतुर्थ पाद यतिभंग है । इसकी जगह पर ' जिणलिंगं दंसणेण सुविसुद्धं' होना ठीक जंचता है |