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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिता
संस्कृत - यथा तारकाणां चन्द्रः मृगराजः मृगकुलानां सर्वेषाम् । अधिकः तथा सम्यक्त्वं ऋषिश्रावक द्विविधधर्माणाम् १४४ अर्थ —— जैसें तारानिके समूहविषै चंद्रमा अधिक है बहुरि मृगकुल कहिये पशूनिके समूहविषै मृगराज कहिये सिंह सो अधिक है तैसें ऋषि कहिये मुनि अर श्रावक ऐसें दोय प्रकार धर्मनिविषै सम्यक्व है सो अधिक है ॥
भावार्थ-व्यवहारधर्म की जेती प्रवृत्ति हैं तिनिमैं सम्यक्त्व अधिक है या विनां सर्व संसारमार्ग बंधका कारण है ॥ १४४ ॥
फेरि कहै है; —
गाथा --जह फणिराओ सोहई फणमणिमाणिक किरण विष्फुरिओ तह विमलदंसणधरो जिर्णभत्तीपवयणे जीवो ॥ १४५॥ संस्कृत - यथा फणिराजः शोभते फणमणिमाणिक्य
किरण विस्फुरितः । तथा विमलदर्शनधरः जिनभक्तिः प्रवचने जीवः १४५ अर्थ — जैसैं फणिराज कहिये धरणेंद्र है सो फण जो सहस्र फण तिनिमैं जे मणि तिनके मध्य जे रक्त माणिक्य ताकी किरणनिकरि विस्फुरित कहिये देदीप्यमान सोहैं हैं तैसें निर्मल सम्यग्दर्शनका धारक जीव है सो जिनभक्तिसहित है या प्रवचन जो मोक्षमार्गका प्ररूपण ताविषै सो है है |
भावार्थ–सम्यक्त्वसहित जीवकी जिन प्रवचनविषै बड़ी अधिकता है जहां तहां शास्त्रविषै सम्यक्त्वकी ही प्रधानता कही है ॥ १४५ ॥
१ - - मुद्रित संस्कृत प्रतिमें ' रेहइ ' ऐसा पाठ है जिसका 'राजते' संस्कृत है। २ - मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'जिणभत्तीपवयणो' ऐसा एकपदरूप पद है जिसकी संस्कृत “ जिनभक्तिप्रवचनः " है । यह पाठ यतिभंग सा मालूम होता है ।