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________________ २३२ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित गाथा - छायास दोसदूसियमसणं गसिउं असुद्ध भावेण । पत्तोसि महावसणं तिरियगईए अणप्पवसो ।। १०१ ॥ संस्कृत - पट्चत्वारिंशद्दोषदूषितमशनं ग्रसितं अशुद्धभावेन । प्राप्तः असि महाव्यसनं तिर्यग्गतौ अनात्मवशः ॥ १०१ अर्थ — हे मुने! तैं अशुद्ध भावकरि छियालीस दोषनिकरि दूषित अशुद्ध अशन कहिये आहार ग्रस्या खाया ताकारण करि तिर्यंचगतिविषै पराधीन भया संता महान बडा व्यसन काहये कष्ट ताकूं प्राप्त भया ॥ भावार्थ–मुनि आहार करै सो छियालीस दोषरहित शुद्ध करै है बत्तीस अंतराय टालै है चौदह मलदोषरहित करे है, सो जो मुनि होयकरि सदोष आहार करै तौ जानिये याके भावभी शुद्ध नांही ताकूं यह उपदेश है जो हे मुने ! तैं दोषसहित अशुद्ध आहार किया तातैं तिर्यंच गतिमैं पूर्वै भ्रम्या कष्ट सह्या तातैं भाव शुद्ध करि शुद्ध आहार करि, ज्यो फेरि नांही भ्रमैं | छियालीस दोपनिमैं सोलह तौ उद्गम दोष हैं ते आहारके उपजनेंके हैं ते श्रावक आश्रित हैं, बहुरि सोलह उत्पादन दोष हैं ते मुनिके आश्रय हैं, बहुरि दश दोष एषणांके है ते आहार के आश्रित है; बहुरि च्यार प्रमाणादिक है । इनिका नाम तथा स्वरूप मूलाचार आचार सारग्रंथतें जाननां ॥ १०१ ॥ आगे फेरि कहै है:-- गाथा - सच्चित्तभत्तपाणं गिद्धी दप्येण पभुत्तूण | पत्तोसि तिव्वदुक्खं अणाइकालेण तं चित्तं ॥ १०२ ॥ १- मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'पभुत्तुण' इसकी संस्कृत 'प्रभुक्त्वा ' की है । २- मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'चित्त' ऐसा पाठ है जिसकी संस्कृत 'चित्त' है अर्थात् 'हे चित्त' ऐसा संबोधनपद किया है ।
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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