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________________ अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। २३१ ___ अर्थ—हे मुनिवर ! जो भावसहित है सो दर्शन ज्ञान चारित्र तप ऐसा आराधनका चतुष्यकू पावै है सो मुनिनिमैं प्रधान है, बहुरि, जो भावरहित मुनि है सो बहुतकाल दीर्घसंसारमैं भ्रमै है ॥ ___ भावार्थ-निश्चय सम्यक्त्वका शुद्ध आत्माका अनुभूतिरूप श्रद्धान है सो ही भाव है ऐसे भावसहित होय ताकै च्यार आराधना होय हैं ताका फल अरहंत सिद्ध पद है बहुरि ऐसे भावकरि रहित होय ताकै आराधना न होय ताका फल संसारका भ्रमण है, ऐसा जाणि भाव शुद्ध करनां यह उपदेश है ॥ ९९ ॥ ___ आरौं भावहीके फलका विशेष कहै है;-- गाथा--पाति भावसवणा कल्लाणपरंपराई सोक्खाई। दुक्खाई दव्वसवणा णरतिरियकुदेवजोणीए ॥१०॥ संस्कृत-प्राप्नुवंति भावश्रमणाः कल्याणपरंपराः सौख्यानि । दुःखानि द्रव्यश्रमणाः नरतिर्यकुदेवयोनौ ॥१०॥ ___ अर्थ-जे भावभ्रमण है भावमुनि है ते कल्याणकी परंपरा जामैं ऐसे सुखनिकू पावै हैं बहुरि जे द्रव्य श्रमण हैं ते तिर्यंच मनुष्य कुदेव योनिविर्षे दुःखनिकू पावै है ॥ भावार्थ-भावमुनि सम्यग्दर्शनसहित हैं ते तौ सोलै कारण भावना भाय गर्भ जन्म तप ज्ञान निर्वाण पंच कल्याण तिनिसहित तीर्यकर पद पाय मोक्ष पावै हैं, बहुरि जे सम्यग्दर्शनरहित द्रव्यमुनि हैं ते तिर्येच मनुष्य कुदेव योनि पाऐं हैं। यह भावके विशेषतै फलका विशेष है ॥ १० ॥ आगैं कहै है जो अशुद्ध भावकरि अशुद्धही आहार किया यातें दुर्गतिही पाई
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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