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________________ अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २३३ संस्कृत - सचित्तभक्तपानं गृद्धया दर्पेण अधीः प्रभुज्य | प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं अनादिकालेन त्वं चिन्तय १०२ अर्थ - हे जीव ! तू दुर्बुद्धी अज्ञानी भया संता अतिचार करि तथा अतिगर्व उद्धतपणकार सचित्त भोजन तथा पान जीवनिसहित आहार पानी लेकर अनादिकाल लगाय तीत्र दुःखकूं पाया ताहि चितवनकरि विचारि ॥ भावार्थ — मुनिकं उपदेश करै है जो -- अनादिकालतें लगाय जेतें अज्ञानी रह्या जीवका स्वरूप न जान्यां तेतैं सचित्त जीवनि सहित आहार पानी करता संता संसार मैं तीव्र नरकादिकका दुःख पाया अब मुनि होय करि भाव शुद्धकरि सचित्त आहार पानी मति करै नांतरि फेरि पूर्ववत् दुःख भोगवैगा ॥ १०२ ॥ आर्गै फेरि कहै है; -- गाथा - कंदं मूलं वीयं पुष्पं पत्तादि किंचि सच्चित्तं । असिऊण माणगव्वं भमिओसि अनंतसंसारे ॥ १०३ ॥ संस्कृत - कंद मूलं बीजं पुष्पं पत्रादि किंचित् सचित्तम् । अशित्वा मानगर्ने भ्रमितः असि अनंतसंसारे ।। १०३ अर्थ — कंद कहिये जमीकंद आदिक, वीज कहिये वीज चणा आदि अन्नादिक, मूल कहिये आदो मूला गाजर आदिक, पुष्प कहिये फूल, पत्र कहिये नागरवेल आदिक, इनिकूं आदि लेकर जो कछू चित् वस्तु ताहि मानकर गर्वकरि भक्षण करी; ताकरि हे जीव ! तू अनंतसंसारविषै भ्रम्या ॥ भावार्थ—कन्दमूलादिक सचित्त अनंतजीवनिकी काय है तथा अन्य वनस्पति बीजादिक सचित हैं तिनिकूं भक्षण किया । तहां प्रथम तौ
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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