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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
गाथा-अह पुणु अप्पा णिच्छदि पुण्णाई करेदि गिरवसेसाई।
तह वि ण पावदि सिद्धिं संसारत्यो पुणो भणिदो॥८६ संस्कृत-अथ पुनः आत्मानं नेच्छति पुण्यानि करोति
निरवशेषानि । तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनः भणितः८६ अर्थ-अथवा जो पुरुष अत्माकू नाही इष्ट करै है ताका स्वरूप न जानें है अंगीकार नाही करै है अर सर्व प्रकार समस्त पुण्यकू करै है तौऊ सिद्धि कहिये मोक्ष ताहि नहीं पावै है बहुरि वह पुरुष संसारहीमैं तिष्ठया रहै है ॥ ___भावार्थ-आत्मिकधर्म धाऱ्यां विना सर्वप्रकार पुण्यका आचरण करै तौऊ मोक्ष न होय संसारहीमैं रहै है, कदाचित् स्वर्गादिक भोग पावै तौ तहां भोगनिमैं आसक्त होय वसै, तहांनैं चय एकेंद्रियादिक होय संसारहीमैं भ्रमैं है ॥ ८६ ॥ __ आगें इस कारणकरि आत्माहीका श्रद्धान करौ प्रयत्नकरि जाणौ मोक्ष पावौ ऐसा उपदेश करै है;गाथा-एएण कारणेण य त अप्पा सदहेह तिविहेण ।
जेण य लभेह मोक्खं तं जाणिज्जह पयत्तेण ॥८७॥ . संस्कृत-एतेन कारणेन च तं आत्मानं श्रद्धत्त त्रिविधेन ।
येन च लभध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन ॥ ८७॥ अर्थ--पूर्व कह्याथा जो आत्माका धर्म तो मोक्ष है तिसही कारण कहै है जो-हे भव्यजीव हौ ! तुम तिस आत्माकू प्रयत्नकरि सर्वप्रकार उद्यमकरि यथार्थ जानो, बहुरि तिस आत्माकू श्रद्धो, प्रतीतिकरो, आचरो, मन वचन कायकरि ऐसे करो जाकरि मोक्ष पावो ।