SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २२३ भावार्थ-जाके जानें श्रद्धान करे मोक्ष होय ताहीका जानना श्रद्धना -मोक्षप्राप्ति करै है तातैं आत्माका जाननां सर्वप्रकार उद्यमकार करनां याहीतैं मोक्षकी प्राप्ति होय है, तातें भव्यजीवनिकू यही उपदेश है ॥८७॥ ___ आगें कहै है बाह्यहिंसादिक किया विनाही अशुद्धभावतें तंदुलमत्स्यतुल्य जीवभी सातवें नरक गया तब अन्य बडे जीवनिकी कहा कथा ? गाथा-मच्छो वि सालिसित्थो असुद्धभावो गओ महाणरयं । _ इय गाउं अप्पाणं भावह जिणभावणं णिचं ॥ ८८ ॥ संस्कृत-मत्स्यः अपि शालिसिक्थः अशुद्धभावः गतः महा नरकम् । इति ज्ञात्वा आत्मानं भावय जिनभावनां नित्यम्।।८८ __ अर्थ- हे भव्यजीव ! तू दोख शालिसिक्थ कहिये तंदुलनामा मत्स्य है सो भी अशुद्धभावस्वरूप भया संता महानरक कहिये सातर्फे नरक गया इस हेतु तोकू उपदेश करै है जो अपने आत्माकू जाननेंकू निरंतर जिनभावना भाय ॥ . ___ भावार्थ-अशुद्धभावके माहात्म्यकरि तंदुल मत्स्य अल्पजीवभी सातर्फे नरक गया तौ अन्य बडाजीव क्यों नरक न जाय तातै भाव शुद्ध करनेका उपदेश है । अर भाव शुद्ध भये अपनां परका स्वरूप जाननां होय है, अर अपनां परका स्वरूपका ज्ञान जिनदेवकी आज्ञाकी भावना निरन्तर भाये होय है; तातें जिनदेवकी आज्ञाकी भावना निरंतर करना योग्य है। तंदुल मत्स्यकी कथा ऐसे है-काकंदीपुरीका राजा सूरसेन था सो मांसभक्षी भया अतिलोलुपी निरन्तर मांस भक्षणका अभिप्राय राखै ताकै पितृप्रियनामा रसोईदार सो अनेक जीवनिका मांस निरन्तर भक्षण
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy