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________________ अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २२१ अर्थ-जे पुरुष पुण्यकू धर्म जांणि श्रद्धान करें हैं बहुरि प्रतीति करें हैं बहुरि रुचि करें है बहुरि स्पशैं हैं तिनिकै पुण्य भोगका निमित्त है याः स्वर्गादिक भोग पाएँ हैं, बहुरि सो पुण्य कर्मका क्षयका निमित्त न होय है, यह प्रगट जानो ॥ ___ भावार्थ--शुभक्रियारूप पुण्यकू धर्म जांणि याका श्रद्धान ज्ञान आचरण करै है ताकै पुण्यकर्मका बंध होय है ताकरि स्वर्गादिके भोगकी प्राप्ति होय है, अर ताकरि कर्मका क्षयरूप संवर निर्जरा मोक्ष न होय ॥ ८४ ॥ ___ आनें कहै है जो आत्माका स्वभावरूप धर्म है सो ही मोक्षका कारण. है ऐसा नियम है;-- गाथा--अप्पा अप्पम्मि रओ रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो । संसारतरणहेदू धम्मोत्ति जिणेहिं णिदिदं ॥८५॥ संस्कृत-आत्मा आत्मनिरतः रागादिषु सकलदोषपरित्यक्तः। संसारतरणहेतुः धर्म इति जिनैः निर्दिष्टम् ॥८५॥ अर्थ-जो आत्मा आत्माहीविर्षे रत होय, कैसा भया रत होयरागादिक समस्त दोषनिकरि रहित भया संता ऐसा धर्म जिनेश्वरदेवनैं संसारसमुद्रतै तिरणेका कारण कह्या है ॥ भावार्थ-जो पूर्वे कह्याथा मोहके क्षाभकरि रहित आत्माका परिणाम है सो धर्म है सो ऐसा धर्मही संसार” पारकरि मोक्षका कारण भगवान कह्या है, यह नियम है ॥ ८५॥ आ याही अर्थक दृढ करनेंकू कहै हैं जो-आत्माकू इष्ट नाही करै है अर समस्त पुण्यकू आचरण करै है तौऊ सिद्धिकू न पावै है;
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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