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________________ २२० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितऐसैं नाही है । जिनमतमैं जिनभगवान ऐसैं कह्या है जो पूजादिकविर्षे अर व्रतसहित होय सो तौ पुण्य है, तहां पूजा अर आदि शब्द करि भक्ति वंदना वैयावृत्त्य आदिक लेनां यह तो देव गुरु शास्त्रकै अर्थि होय है बहुरि उपवास आदिक व्रत हैं सो शुभक्रियाह इनिमैं आत्माका रागसहित शुभपरिणाम है ताकरि पुण्यकर्म निपजैहैं ता” इनि• पुण्य कहे हैं, याका फल स्वर्गादिक भोगकी प्राप्ति है । बहुरि मोहका क्षोभ रहित आत्माके परिणाम लेणे, तहां मिथ्यात्व तौ अतत्वार्थश्रद्धानहै, बहुरि क्रोध मान अरति शोक भय जुगुप्सा ये छह तौ द्वेषप्रकृति हैं बहुरि माया लोभ हास्य रति पुरुष स्त्री नपुंसक ये तीन विकार ऐसैं सात प्रकृति रागरूप हैं इनिके निमित्ततें आत्माका ज्ञानदर्शनस्वभाव विकारसहित क्षोभरूप चलाचल व्याकुल होय है या” इनिका विकारनि रहित होय तब शुद्ध दर्शनज्ञानरूप निश्चय होय सो आत्माका धर्म है; इस धर्मः आत्माकै आगामी कर्मका तौ आस्त्रव रुकि संवर होय है अर पूर्व बंधे कर्म तिनिकी निर्जरा होय है, संपूर्ण निर्जरा होय तब मोक्ष होय है; तथा एकदेश मोहके क्षोभकी हानि होय है ताते शुभपरिणामकू भी उपचार करि धर्म कहिये है, अर जे केवल शुभपरिणामहीकू धर्म मानि संतुष्टहैं तिनिकै धर्मकी प्राप्ति नांही है, यह जिनमतका उपदेश है ।।८३॥ आगें कहै है जो--पुण्यहींकू धर्म जांणि श्रद्धै है तिनिकै केवल भोगका निमित्त है कर्मक्षयका निमित्त नाही;-- गाथा--सदहदि य पत्तेदि य रोचेदि च तह पुणो वि फासेदि । पुण्णं भोयणिमित्तं ण हु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥८४॥ संस्कृत--श्रद्दधाति च प्रत्येति च रोचते च तथा पुनरपि स्पृशति। पुण्यं भोगनिमित्तं न हि तत् कर्मक्षयनिमित्तम् ॥८४
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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