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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका।
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भावार्थ-भगवान भाव तीन प्रकार कह्या है; शुभ, अशुभ, शुद्ध । तहां अशुभ तौ आरौिद्र ध्यान हैं सो तौ अतिमलिन हैं त्याज्य ही हैं, बहुरि शुभ है सो धर्मध्यान है सो यह कथंचित् उपादेय है जातें मंदकषायरूप विशुद्ध भावकी प्राप्ति है, बहुरि शुद्ध भाव है सो सर्वथा उपादेय है जाते यह आत्माका स्वरूपही है । ऐसें हेय उपादेय जांनि त्याग ग्रहण करनां तातैं ऐसा कह्या है जो कल्याणकारी होय सो अंगीकार करनां यह जिनदेवका उपदेश है ॥ ७७ ॥
आ कहै है जो जिनशासनका ऐसा माहात्म्य है;गाथा-पयलियमाणकसाओ पयलियमिच्छत्तमोहसमचित्तो ।
पावइ तिहुवणसारं बोही जिणसासणे जीवो ॥ ७८ ॥ संस्कृत-प्रगलितमानकषायः प्रगलितमिथ्यात्वमोहसमचित्तः।
. आप्नोति त्रिभुवनसारं बोधिं जिनशासने जीवः ॥७॥ __ अर्थ—यह जीव है सो जिनशासनविर्षे तीन भुवनमैं सार ऐसी बोधि कहिये रत्नभयात्मक मोक्ष मार्ग ताहि पावै है, कैसा भया संता प्रगलितमानकषाय कहिये प्रकर्षकरि गल्या है मान कषाय जाका, काहू परद्रव्यसूं अहंकाररूप गर्व नांही करै है, बहुरि कैसा भया संता प्रगलित कहिये गलिगया है नष्ट भया है मिथ्यात्वका उदयरूप मोह जाका याहीतें समचित्त है परद्रव्यविर्षे ममकाररूप मिथ्यात्व अर इष्ट अनिष्टबुद्धिरूप रागद्वेष जाकै नांही है ॥ __ भावार्थ- मिथ्यात्वभाव अर कषाय भावका स्वरूप अन्य मतविर्षे यथार्थ नाही, यह कथनी या वीतरागरूप जिनमतमैं ही है; ता” यह जीव मिथ्यात्व कषायके अभावरूप मोक्षमार्ग तीन भवनमैं सार जिनमतका सेवनही तैं पावें है, अन्यत्र नाही ॥