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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित-
संस्कृत — खचरामरमनुजकरांजलिमालाभिश्च संस्तुता विपुला । चक्रधरराजलक्ष्मीः लभ्यते बोधिः सुभावेन ॥ ७५ ॥
अर्थ — सुभाव कहिये भले भाव करि मंदकषायरूप विशुद्ध भाव करि चक्रवर्त्ती आदि राजा तिनिकी विपुल कहिये बड़ी लक्ष्मी पावै है, कैसी है—खर कहिये विद्याधर अमर कहिये देव मनुज कहिये मनुष्य इनिकी अंजुलीमाला कहिये हस्तनिकी अंजुली तिनिकी पंक्ति करि संस्तुत कहिये नमस्कारपूर्वक स्तुति करनें योग्य है, बहुरि केवल यह लक्ष्मीही नांही पावै है बोधि कहिये रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग भी पावै है | भावार्थ—विशुद्ध भावनिका यह माहात्म्य है || ७५ || आगे भावनिका विशेष कहै है:
गाथा - भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव गायव्वं । असुहं च अट्टरु सुह धम्मं जिणवरिंदेहिं ॥ ७६ ॥ संस्कृत - भावः त्रिविधप्रकारः शुभोऽशुभः शुद्ध एव ज्ञातव्यः । अशुभ आर्त्तरौद्रं शुभः धर्म्य जिनवरेन्द्रैः ॥ ७६ ॥ अर्थ—जिनवरदेव भाव तीनप्रकार कया है: - शुभ अशुभ, शुद्ध ऐसें । तहां अशुभ तौ आर्त्तरौद्र ये ध्यान है अर शुभ है सो धर्मध्यान है ॥ ७६ ॥ गाथा - सुद्धं सुद्धसहावं अप्पा अप्पम्मि तं च णायव्वं ।
इदिजिणवरेहिं भणियं जं सेयं तं समायरह ॥ ७७ ॥ संस्कृत - शुद्धः शुद्धस्वभावः आत्मा आत्मनि सः च ज्ञातव्यः । इति जिनवरैः भणितं यः श्रेयान् तं समाचर ॥७७॥
अर्थ — बहुरि शुद्ध है सो अपनां शुद्धस्वभाव आपही मैं है ऐसें जिनवरदेव कह्या है सो जाननां तिनिमैं जो कल्याणरूप होय ताकूं अंगीकार
करौ ॥