SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित भावार्थ — निश्चय रत्नत्रय पाये बिना यह जीव मिथ्यात्व के उदय तैं संसारमैं भ्रम है यातैं रत्नत्रयका आचरणका उपदेश हैं ॥ ३० ॥ आगैं शिष्य पूछै जो वह रत्नत्रय कैसा है ताका समाधान करें है जोरत्नत्रय ऐसा है ; ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ गाथा – अप्पा अप्पम्मि रओ सम्माइट्ठी हवेड फुड जीवो । जाणइ तं सण्णाणं चरदिह चारित्तमग्गुत्ति ॥ ३१ ॥ संस्कृत - आत्मा आत्मनि रतः सम्यग्दृष्टिः भवति स्फुटं जीवः । जानाति तत् संज्ञानं चरतीह चारित्रं मार्ग इति ॥ ३१ ॥ अर्थ — जो आत्मा आत्माविषै रत होय यथार्थस्वरूपका अनुभव करि तद्रूप होय, श्रद्धान करै सो प्रगट सम्यग्दृष्टी होय, बहुरि आत्माकूं जानैं सो सभ्यग्ज्ञान है, बहुरि तिस आत्माकूं आचरण करे रागद्वेषरूप न परिणमै सो चारित्र है; ऐसैं यह निश्चय रत्नत्रय है सो मोक्षमार्ग है ॥ भावार्थ—आत्माका श्रद्धान ज्ञान आचरण सो निश्चय रत्नत्रय है, अर बाह्य याका व्यवहारजीव अजीवादितत्वनिका श्रद्धान जाननां परद्रव्य परभावका त्याग करना है ऐसें निश्चय व्यवहारस्वरूप रत्नत्रय मोक्षका मार्ग है । तहां निश्चय तौ प्रधान है या विनां व्यवहार संसारस्वरूपही है, बहुरि व्यवहार है सो निश्चयका सावनस्वरूप है या विना निश्चयकी प्राप्ति नहीं है, अर निश्चयकी प्राप्तिभये पीछे व्यवहार कछु है नांही ऐसैं जाननां ॥ ३१ ॥ आगै संसारविषै या जीवनैं जन्म मरण किये ते कुमरण किये अब सुमरणका उपदेश करै है;गाथा - अण्णे कुमरणमरणं अणेयजम्मंतराई मरिओसि । भावहि सुमरणमरणं जरमरणविणासणं जीव ! ॥३२॥ १८०
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy