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________________ १४६ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिता धनवान इनिविर्षे निरपेक्ष कहिये जामैं अपेक्षा नाहीं ऐसी सर्व जायगां ग्रह्या है पिंड कहिये आहार जानें ऐसी प्रव्रज्या कही है ।। ___ भावार्थ---मुनि दीक्षासहित होय है अर आहार लेने• जाय तब ऐसी न विचारै जो बडे घर जानां अथवा छोटे घर जानां तथा दरिद्रीके जाना धनवानकै जाना ऐसी वांछा रहित निर्दोष आहारकी योग्यता होय तहां सर्वत्रही जायगां योग्य आहार ले, ऐसी दीक्षा है ॥ ४८ ॥ ___ आगै फेरि कहै है;गाथा-णिग्गंथा णिस्संगा गिम्माणासा अराय णिदोसा । णिम्मम णिरहंकारा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥४९।। संस्कृत-निर्ग्रथा निःसंगा निर्मानाशा अरागा निषा । निर्ममा निरहंकारा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥४९॥ अर्थ-बहुरि कैसी है प्रव्रज्या-निग्रंथस्वरूप है परिग्रह रहित है, बहुरि कैसी है-निःसंग कहिये स्त्री आदि परद्रव्य का संग मिलाप जामैं नांहीं है, बहुरि निर्माना कहिये मान कषाय जा. नांहीं है मदरहित है बहुरि कैसी है निराशा है जामैं आशा नहीं है संसारभोगकी आशारहित है, बहुरि कैसी है-अराग कहिये रागका जामैं अभाव है संसार देह भोगसूं जामैं प्रीति नहीं है, बहुरि कैसी है निर्दोष कहिये काहूसू द्वेष जामैं नाहीं है, बहुरि कैसी है निर्ममा कहिये जामैं काहूंसू ममत्व भाव नाही है, बहुरि कैसी है निरहंकारा कहिये अहंकाररहित है जो कळं कर्मका उदय है सो होय है ऐसें जानने तैं परद्रव्य. कापणांका अहंकार नांहीं है अपनां स्वरूपका ही जामैं साधन है ऐसी प्रव्रज्या कही है ।। भावार्थ-अन्यमती भेष पहरि तिसमात्र दीक्षा मानें हैं सो दीक्षा नांहीं है, जैनदीक्षा ऐसी कही है ।। ४९ ।।
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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