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________________ अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका। १४७ आगै फेरि कहै है;गाथा--णिण्णेहा णिल्लोहा णिम्मोहा णिव्वियार णिकलुसा। णिब्भय णिरासभावा पव्वजा एरिसा भणिया॥५०॥ संस्कृत-निःस्नेहा निर्लोभा निर्मोहा निर्विकारा निष्कलुषा। निर्भया निराशभावा प्रव्रज्या ईदृशी भगिता ॥५०॥ अर्थ--बहुरि प्रव्रज्या ऐसी कही है.—निःस्नेहा कहिये जामैं काहूंसू स्नेह नाही परद्रव्यसूं रागादिरूप सचिक्कणभाव जामैं नाही है, बहुरि कैसी है निर्लोभा कहिये जामैं कछु परद्रव्यके लेनेकी वांछा नाही है, बहुरि कैसी है. निर्मोहा काहये जामैं काहू परद्रव्यसू मोह नाही है भूलिकरि भी परद्रव्यमैं आत्मबुद्धि नांही उपजै है, बहुरि कैसी है निर्विकार है बाह्य अभ्यंतर विकारतूं रहित है बाध शरीरकी चेष्टा तथा वस्त्रभूषणादिकका तथा अंग उपांगका विकार जामैं नहीं है अंतरंग काम क्रोधादिकका विकार जामैं नांही है, बहुरि कैसी हैं नि:कलुषा कहिये मलिनभावरहित है आत्माकू कषाय मलिन कर है सो कषाय जामैं नहीं है, बहुरि कैसी है निर्भया कहिये काहू प्रकारका भय जामैं नाही है, आपका स्वरूपकू अविनाशी जानैं ताकै काहेका भय होय, बहुरि कैसी है निराशभाव कहिये जामैं काहू प्रकार परद्रव्यकी आशाका भाव नाही है आशा तौ किछू वस्तुकी प्राप्ति न होय ताकी लगी रहै है अर जहां परद्रव्यकू अपनां जान्यां नाही अर अपने स्वरूपकी प्राप्ति भई तब किछू पावना न रह्या तंब काहेकी आशा होय । प्रव्रज्या ऐसी कही है ॥ भावार्थ-जैनदीक्षा ऐसी है, अन्यमतमैं स्वरूप द्रव्यका भेदज्ञान नांही है तिनिकै ऐसी दीक्षा काहेरौं होय ॥ ५० ॥ आगैं दीक्षाका बाह्य स्वरूप कहै है;
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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