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________________ अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका। १४५ wwwwwwwwwwwwwwww.. ये तो गृहस्थका कर्म है, बहुरि गृहस्थकै भी इनि वस्तुनिके दानतें विशेष पुण्यतौ नाही उपजै है जातें पाप बहुत है सो पुण्य अल्प है सो बहुत पाप कार्य तौ गृहस्थकू करने# लाभ नाही जामैं बहुत लाभ होय सो ही करना योग्य है, दीक्षा तौ इनि वस्तुनिकरि रहित ही जाननां ४६ आण फेरि कहै है;-- गाथा-सत्तमित्ते य समा पसंसणिद्दाअलद्धिलद्धिसमा। तणकणए समभावा पव्वजा एरिसा भणिया ॥४७॥ संस्कृत-शत्रौ मित्रे च समा प्रशंसानिन्दाऽलब्धिलब्धिसमा। तृणे कनके समभावा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥४७॥ अर्थ-बहुरि जामैं शत्रु मित्रवि समभाव है, बहुरि प्रशंसा निंदा विर्षे लाभ अलाभविौं समभाव है बहुरि तृणकंचन वि समभाव है ऐसी प्रव्रज्या कही है। भावार्थ—जैनदीक्षावि रागद्वेषका अभाव है जानैं वैरी मित्र निंदा प्रशंसा लाभ अलाभ तृण कंचनविर्षे तुल्य भाव है, जैनके मुनिनिक ऐसी दीक्षा है ॥ ४७॥ ___ आगें फेरि कहैं हैं;-- गाथा-उत्तममज्झिमगेहे दारिदे ईसरे णिरावेक्खा । सव्वत्थ गिहिदपिंडा पधज्जा एरिसा भणिया ॥४८॥ संस्कृत-उत्तममध्यमगेहे दरिद्रे ईश्वरे निरपेक्षा । सर्वत्र गृहीतपिंडा प्रवज्या ईदृशी भणिता ॥४८॥ अर्थ-उत्तम गेह कहिये शोभासहित ऐसा राजमंदिरादिक अर मध्यम गेह कहिये शोभारहित सामान्य जनका घर इनि वि. तथा दरिद्री, अ०व० १०
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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