________________
१४४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित- . गाथा-गिहगंथमोहमुक्का वावीसपरीषहा जियकषाया। .
पावारंभविमुक्का पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥४५॥ संस्कृत--गृहग्रंथमोहमुक्ता द्वाविंशतिपरीषहा जितकषाया।
पापारंभविमुक्ता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥४५॥ __ अर्थ-गृह कहिये घर अर ग्रंथ कहिये परिग्रह इनि दोऊनितें तथा तिनिका मोह ममत्व इष्ट अनिष्टबुद्धि ता” रहित हैं, बहुरि बावीस परीषहनिका सहनां जामैं होय है, बहुरि जीते है कषाय जामैं, बहुरि पापरूप जो आरंभ ताकरि रहित है, ऐसी प्रव्रज्या जिनेश्वर देव कही है ॥ ___ भावार्थ-जैन दीक्षामैं कछुभी परिग्रह नाही, सर्व संसारका मोह नाही, बाईस परीषहनिका जामैं सहनां, कषायनिका जीतनां पापारंभका जामैं अभाव । ऐसी दीक्षा अन्य मतमैं नाही ॥ ४५ ॥
आगँ फेरि कहै है;गाथा-धणधण्णवत्थदाणं हिरण्णसयणासणाइ छत्ताई।
कुद्दाणविरहरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥४६॥ संस्कृत-धनधान्यवस्त्रदानं हिरण्यशयनासनादि छत्रादि ।
कुदानविरहरहिता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥४६॥ अर्थ-धन धान्य वस्त्र इनिका दान बहुरि हिरण्य कहिये रूपा सोना आदिक बहुरि शय्या आसन आदि शब्दः छत्र चामरादिक बहुरि क्षेत्र आदिक ये कुदान ताका देना ताकरि रहित ऐसी प्रव्रज्या कही है।
भावार्थ- अन्यमती केई ऐसी प्रव्रज्या कहैं हैं—जो गऊ धन धान्य वस्त्र सोना रूपा शयन आसन छत्र चामर भूमि आदिका दान करना सो प्रव्रज्या है ताका या गाथामैं निषेध किया है जो प्रव्रज्या तौ निम्रथस्वरूप है जो धन धान्य आदि राखि दान करै ताकै काहेकी प्रव्रज्या ?