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________________ १२० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितकैसा है-संयम कहिये चारेत्र पंच महाव्रत पंचसमिति तीन गुप्ति ऐसैं तेरह प्रकार चारित्ररूप है, बहुरि कैसा है-सुधर्म कहिये उत्तमक्षमादिक दशलक्षण धर्मरूप है, बहुरि कैसा है—सुधर्म कहिये उत्तम क्षमादिक दशलक्षणधर्म रूप है, बहुरि कैसा है—निरंथरूप है बाह्य अभ्यंतर परिग्रह रहित है, बहुरि कैसा है-ज्ञानमयी है जीव अजीवादि पदानिकू जाननेवाला है; इहां निथ अर ज्ञानमयी ये दोय विशेषण दर्शनके भी होय हैं जातें दर्शन है सो बाह्य तौ याकी मूर्ति निग्रंथ है बहुरि अंतरंग ज्ञानमयी है । ऐसा मुनिके रूपकौं जिनमार्गमैं दर्शन कह्या है तथा ऐसे रूपका श्रद्धानरूप सम्यत्क्वस्वरूपकुं दर्शन कहिये है। — भावार्थ-परमार्थरूप अंतरंग दर्शन तौ सम्यक्त्व है अर बाह्य याकी मूर्ति ज्ञानसहित ग्रहण किया निग्रंथरूप ऐसा मुनिका रूप है सो दर्शन है जातें मतकी मूर्तिकू दर्शन कहनां लोकमैं प्रसिद्ध है ॥ १४ ॥ आगै फेरि कहैं हैं;गाथा—जह फुल्लं गंधमयं भवदि हु खीरं स घियमयं चावि। तह दंसणं हि सम्मं णाणमयं होइ रूवत्थं ॥ १५ ॥ . संस्कृत--यथा पुष्पं गंधमयं भवति स्फुटं क्षीरं तत् घृतमयं चापि तथा दशनं हि सम्यग्ज्ञानमयं भवति रूपस्थम् ॥१५॥ अर्थ—जैसे फूल है सो गंधमयी है बहुरि दूध है सो घृतमयी है तैसें दर्शन काहिये मत विौं सम्यक्त्व है कैसा है दर्शन अंतरंग तो ज्ञानमयी है बहुरि बाह्य रूपस्थ है मुनिका रूप है तथा उत्कृष्ट श्रावक अर्जिकाका रूप है ॥ भावार्थ-दर्शन नाम मतका प्रसिद्ध है सो इहां जिनदर्शनविय मुनिश्रावक आर्यिकाका जैसा बाह्य भेष कह्या सो दर्शन जाननां अर याकी
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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