SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका।' १२१ श्रद्धा सो अंतांग दर्शन जाननां सो ये दोऊही ज्ञानमयी हैं यथार्थ तत्वार्थका जाननेंरूप सम्यक्त्व जामैं पाइये है याही तैं फूलमैं गंधका अर दूधमें घृतका दृष्टांत युक्त है ऐसैं दर्शनका रूप कह्या । अन्यमतमैं तथा कालदोषकार जिनमतमैं जैनाभास भेषी अनेक प्रकार अन्यथा कहै हैं सो कल्याणरूप नाहीं संसारका कारण है ॥ १५ ॥ ___ आगैं जिनबिंबका निरूपण करै है;गाथा-जिणबिंब णाणमयं संजमसुद्धं सुवीयरायं च । जं देइ दिक्खसिक्खा कम्मक्खयकारणे सुद्धा ॥१६॥ संस्कृत-जिनवित्र ज्ञानमयं संयमशुद्धं सुवीतरागं च । । यत् ददाति दीक्षाशिक्षे कर्मक्षयकारणे शुद्धे ॥ १६॥ अर्थ-जिनबिंब कैसा है-ज्ञानमयी है अर संयमकरि शुद्ध है बहुरि अतिशयकरि वीतराग है बहुरि जो कर्मका क्षयका कारण अर शुद्ध है ऐसी दीक्षा अर शिक्षा दे है ॥ भावार्थ-जो जिन कहिये अरहंत सर्वज्ञका प्रतिबिंब कहिये ताकी जायगां तिसकी ज्यौं मानने योग्य होय, ऐसे आचार्य हैं सो दीक्षा कहिये व्रतका ग्रहण अर शिक्षा कहिये व्रतका विधान बतावनां ये दोऊ कार्य भव्यजविानिकू दे है, यातै प्रथम तौ सो आचार्य ज्ञानमयी होय जिनसूत्रका जिनकू ज्ञान होय ज्ञान विना यथार्थ दीक्षा शिक्षा कैसे होय अर आप संयमकरि शुद्ध होय ऐसा न होय तौ अन्यकू भी संयम शुद्ध न करावे, बहुरि अतिशयकरि वीतरागं न होय तौ कषायसहित होय तब दीक्षा शिक्षा यथार्थ न दे, यातें ऐसे आचार्यकू जिनके प्रतिबिंब जानने ॥ १६ ॥ आ» फेरि कहै है;
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy