SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका । ११९ कायरहित है जैसा पूर्वै देह मैं आकार था तैसाही प्रदेशनिका आकार किछू घाटि ध्रुव है, संसार मुक्त होय एक समय गमनकारी लोककै अग्रभागविषै जाय तिष्ठै पीछें चलाचल नांही है ऐसी प्रतिमा सिद्ध है | भावार्थ — पहलै दोय गाथा मैं तौ जंगम प्रतिमा संयमी मुनिनिकी देहसहित कही, बहुरि इनेि दोय गाथानि मैं थिर प्रतिमा सिद्धनिकी कही ऐसैं जंगम थावर प्रतिमाका स्वरूप कह्या अन्य केई अन्यथा बहुत प्रकार कल्पैं हैं सो प्रतिमा वंदिवे योग्य नांही है | व्यवहार में इहां प्रश्न — जो यह तौ परमार्थ स्वरूप कह्या अर बाह्य प्रतिमा पाषाणादिककी वंदिये है सो कैसैं ! ताका समाधान- जो बाह्य व्यवहारमै मतांतरके भेद तैं अनेक रीति प्रतिमाकी प्रवृत्ति है सो इहां परमार्थं प्रधानकरि कया है, बहुरि व्यवहार है सो जैसा प्रतिमाका परमार्थरूप होय ताहकूं सूचता होय सो निर्वाध होय है जैसा परमार्थरूप आकार का तैसाही आकाररूप व्यवहार होय सो व्यवहार भी प्रशस्त है, व्यवहारी जीवनिकै ये भी वंदिवेयोग्य है । स्याद्वाद न्याय साधे परमार्थ व्यवहार मैं विरोध नांहीं है ॥ १२-१३ ॥ ऐसैं जिनप्रतिमाका स्वरूप कया । आर्गै दर्शनका स्वरूप कहैं हैं; - गाथा - दंसे मोक्खमग्गं सम्मत्तं संयमं सुधम्मं च । गिरथं णाणमयं जिण मग्गे दंसणं भणियं ॥ १४ ॥ संस्कृत-दर्शयति मोक्षमार्ग सम्यक्त्वं संयमं सुधर्मं च । निर्ग्रथं ज्ञानमयं जिनमार्गे दर्शनं भणितम् ॥ १४ ॥ अर्थ — जो मोक्षमार्गकूं दिखावै सो दर्शन है, कैसा है मोक्षमार्ग—सम्यक्त्व कहिये तत्वार्थश्रद्धान लक्षण सम्यत्वस्वरूप है, बहुरि
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy