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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
. भावार्थ-जाननेवाला देखनेवाला शुद्ध सम्यक्त्व शुद्ध चारित्र स्वरूप निग्रंथ संयमसहित ऐसा मुनिका स्वरूप है सो ही प्रतिमा है सो ही वंदिवेयोग्य अन्य कल्पित वंदिवेयोग्य नाही है. बहुरि तैसेही रूपसदृश धातुपाषाणकी प्रतिमा होय सो व्यवहारकार वंदिबेयोग्य है ॥ ११ ॥
आगै फेरि कहै है;गाथा-दंसण अणंत णाणं अणंतवीरिय अणउसुक्खा य ।
सासयसुक्ख अदेहा मुक्का कम्मदृवंधेहिं ॥ १२ ॥ निरुवममचलमखोहा णिम्मिविया 'जंगमेण रूवेण ।
सिद्धटाणम्मि ठिया वोसरपडिमा धुवा सिद्धा ॥१३॥ संस्कृत-दर्शन अनंतं ज्ञानं अनन्तवीर्याः अनंतसुखाः च ।
शाश्वतसुखा अदेहा मुक्ताः कर्माष्टकबंधैः ॥ १२ ॥ निरुपमा अचला अक्षोभाः निर्मापिता जंगमेन रूपेण ।
सिद्धस्थाने स्थिताः व्युत्सर्गप्रतिमा ध्रुवाः सिद्धाः १३ अर्थ—जो अनंतदर्शन अनंतज्ञान अनंतवीर्य अनंतसुख इनिकार सहित है, बहुरि शाश्वता अविनाशीसुखस्वरूप है. बहुरि अदेह है कर्म नोकर्मरूप पुद्गलमयी देह जिनिकै नांही है, बहुरि अष्टकर्मके बंधनकरि रहित है, बहुरि उपमाकरि रहित है जाकी उपमा दीजिये ऐसा लोकमैं वस्तु नाही है, बहार अचल है प्रदेशनिका चलनां जिनके नांही है बहुरि अक्षोभ है जिनिकै उपयोगमैं किछू क्षोभ नाही है निश्चल है, बहुरि जंगमरूप कार निर्मित है कर्म” निर्मुक्त हुये पीछे एक समय मात्र गमन रूप होय हैं, ता” जंगमरूपकार निर्मापित है, बहुरि सिद्धस्थान जो लोकका अग्रभाग ता विषं स्थित है याही तें व्युत्सर्ग कहिये
१-संकृत सटीक प्रतिमें 'निर्मापिता: अजंगमेन रूपेण ऐशी छाया है।