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________________ अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका । ११७ गाथा - सपरा जंगमदेहा दंसणणाणेण सुद्धचरणाणं । थिवीयराया जिणमग्गे एरिसा पडिमा ॥ १० ॥ संस्कृत - खपरा जंगमदेहा दर्शनज्ञानेन शुद्धचरणानाम् । निर्ग्रन्थवीतरागा जिनमार्गे ईदृशी प्रतिमा ॥ १० ॥ अर्थ — दर्शन ज्ञान कर शुद्ध निर्मल है चारित्र जिनकै तिनिकी स्वपरा कहिये अपनी अर परकी चालती देह है सो जिनमार्ग विषै जंगम प्रतिमा है, अथवा स्वपरा कहिये आत्मा पर कहिये भिन्न है ऐसी देह है, सो कैसी है - निर्ग्रथ स्वरूप है जाकै किछू परिग्रहका लेश नांहीं ऐसी दिगंबर मुद्रा, बहुरि कैसी है - वीतराग स्वरूप है जाकै काहू वस्तुसौं राग द्वेष मोह नांहीं, जिनमार्ग विषै ऐसी प्रतिमा कही है। दर्शन ज्ञान करि निर्मल चारित्र जिनकै पाइये ऐसे मुनिनिकी गुरु शिष्य अपेक्षा अपनी तथा परकी चालती देह निर्ग्रन्थ वीतरागमुद्रा स्वरूप है सो जिनमार्गविषै प्रतिमा है अन्य कल्पित है अर धातु पाषाण आदिकरि दिगंबरमुद्रा स्वरूप प्रतिमा कहिये सो व्यवहार है सो भी बाह्य प्रकृति ऐसी ही होय सो व्यवहार मैं मान्य है ॥ १० ॥ आर्गै फेरि कहै है; - गाथा – जं चरदि सुद्धचरणं जाणइ पिच्छे सुद्धसम्मत्तं । सा होई वंदणीया णिग्गंथा संजदा पडिमा ॥ ११ ॥ संस्कृत – यः चरति शुद्धचरणं जानाति पश्यति शुद्धसम्यक्त्वम् । सा भवति वंदनीया निर्मन्था सांयता प्रतिमा ॥ ११ ॥ अर्थ — जो शुद्ध आचरणकूं आचरै बहुरि सम्यग्ज्ञानकरि यथार्थ वस्तुकं जाने है बहुरि सम्यग्दर्शनकरि अपने स्वरूपकं देखे है ऐसें शुद्ध जाकै पाइये है ऐसी निर्ग्रथ संयम स्वरूप प्रतिमा है सो वंदि सम्यक् योग्य है ॥
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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