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अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका । ७ आगै कहै है जिनवचनविर्षे ऐसा मुनि वंदने योग्य कह्या है;गाथाः--पंचमहन्वयजुत्तो तिहि गुत्तिहि जो स संजदो होइ ।
णिग्गंथमोक्खमग्गो सो होदि हु वंदणिज्जोय ॥२०॥ संकृतः-पंचमहाव्रतयुक्तःतिसृभिःगुप्तिभिः यःस संयतो भवति
निग्रंथमोक्षमार्गः सभवति हि वन्दनीयः च ॥२०॥ अर्थ--जो मुनि पंच महाव्रतकरि युक्त होय अर तीन गुप्तिकरि संयुक्त हाये सो संयत है संयमवान है बहुरि निग्रंथ मोक्षमार्ग है बहुरि सो ही प्रगटपणें निश्चयकरि वंदने योग्य है ॥ ___ भावार्थ-अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अर अपरिग्रह इनि पांच महाव्रतनि करि सहित होय बहुरि मन वचन कायरूप तीन गुप्तिनि करि सहित होय सो संयमी है सो निग्रंथ स्वरूप है सो ही वंदने योग्य है। जो कछू अल्प बहुत परिग्रह राखै सो महाव्रती संयमी नाही यह मोक्षमार्ग नांही अर गृहस्थवत् भी नांही है ॥ २० ॥
आगैं कहै है जो पूर्वोक्त तो एक भेष मुनिका कह्या, अब दूसरा भेद उत्कृष्ट श्रावकका ऐसा कह्याहै;गाथा-दुइयं च उत्त लिंगं उकिटं अवरसावयाणं च ।
भिक्खं भमेइ पत्ते समिदीभासेण मोणेण ॥ २१ ॥ संस्कृत-द्वितीयं चोक्तं लिंगं उत्कृष्टं अवरश्रावकाणां च।
भिक्षां भ्रमति पात्रे समितिभाषया मौनेन ॥ २१ ॥ अर्थः-द्वितीय कहिये दूसरा लिंग कहिये भेष उत्कृष्ट श्रावक कहिये जो गृहस्थ नाही ऐसा उत्कृष्ट श्रावक ताका कह्या है सो उत्कृष्ट श्रावक ग्यारमी प्रतिमाका धारक है सो भ्रमकरि भिक्षाकरि भोजन करै, बहुरि पत्ते