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पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचितकहिये पात्रमैं भोजन करै तथा हाथमैं करै बहुरि समितिरूप प्रवर्त्तता भाषासमितिरूप बोलै अथवा मौनकरि प्रवत्र्ते ॥
भावार्थ:-एक तौ मुनिका यथाजातरूप कह्या बहुरि दूसरा यह उत्कृष्ट श्रावकका कह्या सो ग्यारमी प्रतिमाका धारक उत्कृष्ट श्रावक है सो एक वस्त्र तथा कोपीन मात्र धारे है बहुरि भिक्षा भोजन करै है बहुरि पात्रमैं भी भोजन करै करपात्रमैं भी करे बहुरि समितिरूप वचन भी कहै अथवा मौन भी राखै ऐसा दूसरा भेष है ॥ २१ ॥ ___ आज तीसरा लिंग स्त्रीका कहै है;गाथा-लिंगं इत्थीण हवदि भुंजइ पिंडं सुएयकालम्मि ।
अजिय वि एकवत्था वत्थावरणेण मुंजेइ ॥ २२ ॥ संस्कृत-लिंगं स्त्रीणां भवति भुक्ते पिंडं स्वेककाले ।
आयो अपि एकवस्त्रा वस्त्रावरणेन भुंक्ते ॥ २३ ॥ अर्थ-लिंगहै सो स्त्रीनिका ऐसाहै-एक कालविौं तौ भोजन करै वारंवार भोजन नहीं करै बहुरि आर्यिका भी होय तौ एकवस्त्र धारै बहुरि भोजन करतें भी वस्त्रके आवरणसहित करै नग्न नहीं होय ।
भावार्थ--स्त्री आर्यिका भी होय अर क्षुल्लका भी होय सो दोऊ ही भोजनतौ दिनमैं एकवारही करै आर्यिका होय सो एक वस्त्र धारेही भोजन करै नग्न नहीं होय । ऐसा तीसरा स्त्रीका लिंग है ॥ २२॥
आनें कहैहै-वस्त्रधारककै मोक्ष नाही, मोक्षमार्ग नग्नपणांही है;-- गाथा-ण विसिज्झइ वत्थधरोजिणसासण जइ विहोइ तित्थयरो।
णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥२३॥ संस्कृत–नापि सिध्यति वस्त्रधरः जिनशासने यद्यपि भवति
तीर्थकरः।