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________________ ७० पंडित जयचंद्रजी छावडा विरचितहोय है तथा छूटि जाय तो अपघातका दोष आवे, अर शीत आदिकी बाधा तो अल्प है सो यह तौ ज्ञानाभ्यास आदिके साधने ही मिटि जाय है। अपवादमार्ग कह्या सो जामैं मुनिपद रहै ऐसी क्रिया करनां तो अपवादमार्ग है अर जिस परिग्रह तथा जिस क्रिया” मुनिपद भ्रष्ट होय गृहस्थवत हो जाय सो तौ अपवादमार्ग है नांही । दिगंबर मुद्रा धारि कमंडलु पीछी सहित आहार विहार उपदेशादिकमैं प्रवत्तै सो अपवादमार्ग है अर सर्व प्रवृत्तिकू छोड़ ध्यानस्थ होय शुद्धोपयोगमैं लीन होय सो उत्सर्गमार्ग कया है। ऐसा मुनिपद आपतै सधता न जानि काहे• शिथिलाचार पोषणां, मुनिपदकी सामर्थ्य न होय तो श्रावकधर्म ही पालनों परंपराकरि याहीतै सिद्धि होयगी। जिनसूत्रकी यथार्थ श्रद्धा राखे सिद्धि है या विनां अन्य क्रिया सर्व ही संसारमार्ग है मोक्षमार्ग नाही, ऐसें जाननां ॥ १८ ॥ ___ आगें इस ही अर्थका समर्थन करै है;--- गाथा-जस्स परिग्गहगहणं अप्पं बहुयं च हवइ लिंगस्स । सो गरहिउ जिणवयणे परिगहरहिओ निरायारो॥१९॥ संस्कृत-यस्य परिग्रहग्रहणं अल्पं बहुकं च भवति लिंगस्य । सः गर्यः जिनवचने परिग्रहरहितः निरागारः॥१९॥ ___ अर्थ:--जाके मतमैं लिंग जो भेष ताके परिग्रहका अल्प तथा बहुत ग्रहणपणां कह्या है सो मत तथा तिसका श्रद्धावान पुरुष गर्हित है निंदायोग्य है जातें जिनवचनविर्षे परिग्रह रहित है सो निरागार हे निर्दोष मुनि है, ऐसैं कह्या है ।। भावार्थ:--श्वेतांबरादिकके कल्पित सूत्रनिमैं भेषमैं अल्प बहुत परिग्रहका ग्रहण कह्या है सो सिद्धान्त तथा ताके श्रद्धानी निंद्य हैं। जिनवचनविर्षे परिग्रह रहितळू ही निर्दोष मुनि कह्या है ॥१९॥
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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