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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४८ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे सरस सुगन्धिपुष्पमाला नियन्ताम् इति भावः 'गणियावरणाडइज्जकलियं' गणिकावर नाटकीयतां, वेश्यामधान नृत्ययुक्ताम, अणेगतालायराणुचरिये ' अनेक तालाच राजुचरिताम् = अनेके ये तालाचराः =तलप्रदानेन मेक्षाकारिणः, तैः अनुचरिता आसेविता या सा तथोक्तां यत्र नृत्यादौ तालपूरकतया बहवः सहायकाः सन्तीति भावः, यद्वा-अनेके च ये तालाः उपलक्षणात् स्वरग्राममूर्छनादयः तेषामाचारः आचरणं तेनानुचरित=युक्तां 'मुझ्यपकी लियाभिरामं ' प्रमुदितमक्रीडिताभिरामा प्रमोदयुक्ताः क्रीडायुक्ताननाः, तैरभिरामो = मनोह राम, 'जहारिहं' यथाही धर्मनीति यथायोग्यां 'हिइवडियं' स्थितिपतिताँ, वर्ण सरस सुगंधित पुष्पों की मालाएँ बान्धी जावे । (गणियावरणाइजकलियं) १० दिवस तक वेश्याजनों का सुन्दर२ नृत्यकला होती रहे । ( अणेगतालायराणुचरियं) तथाउस नृत्य कला देखने में ऐसे व्यक्तियों का विशेष रूप से समावेश रहे जो ताल देने में पहु हों । अथवा वह नृत्य कला की व्यवस्था वाली प्रक्रिया ऐसी हो कि जिसमें स्वर, ग्राम एवं मूर्च्छनादि को सद्भाव क्रियारूप - खूब हो। (मुपक्कीलियाभिरामं ) जो मनुष्य इस १०दस दिवसीय उत्सव में सम्मिलित होकर विविध प्रकार की attern से जनता का मनोरंजन करे उन पर यह ध्यान रखा जावे कि वे किसी भी तरह से हताश न हों किन्तु सदाप्रमुदित ही रहें । करिता एयमाणाचियं पञ्चष्पिणह) इस प्रकार पुत्रोत्पत्ति के उत्सव में क्रियमाण १० दिवस पर्यन्त की इस व्यवस्था को सफलता का रूप देने के लिये जो पूर्वोक्तरूप से आज्ञा दी गई है उसे मनोहर बनाने में किसी भी बात की (गणियावरणाडइज्जक लियं) દસ દિવસ સુધી વેશ્યાનાં સુંદર નૃત્યા થતાંજ રહે. (अणेग तालायराणु चरियं) तेभ नृत्यगायने नेनाराम मां भाषा व्यक्ति વધારે પડતા હાય કે જે નૃત્ય વખતે તાલ આપામાં ચતુર હોય અથવા તા નૃત્યકળાની વ્યવસ્થા એવી હાય કે જેમાં સ્વર, ગ્રામ અને મૂર્ચ્છના વગેરેના ક્યા ३ सरस सुभेज़ होय. (पय पक्कीलियासिराम ) ? उसाअशे इस दिवस सुधी ઉત્સવમાં સમ્મિલિત થઈ ને અનેક ક્રીડાઓ દ્વારા પ્રજા 1 નાનું મનોર ન કરે તે ઉપર ખાસ મનોરંજન કરે તે ઉપર ખાસ આ રીતે તકેદારી રાખવામાં આવે કે तेथे अध पशु रीते हतोत्साड़ी न थ नय तेथे प्रसन्न ४ रहे. (कारिता एवं माणातियं पञ्चष्पिणह) मा प्रमाणे पुत्र मोत्सवम इस हिवस सुधीना मा ચવસ્થાને સફળ બનાવવા માટે જે પહેલાં આજ્ઞા અપાઈ છે તેને વામાં કાઈ પણ તની કસર ન રહેવી જોઇએ. જ્યારે આ બધી For Private and Personal Use Only સરસ રૂપ આપવ્યવસ્થા પૂરી થાય
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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