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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे रत्त इंद गोवयथोवय कारुन्न विलविएमु' उद्दायंत रक्तेन्द्रगोपक स्तोकक कारुण्य. विलपितेपु, तत्र 'उहायंत' इति शोभमाना ये रक्ता इन्द्र गोपकाः कीटविशेषाः, स्तोकका=श्चक्रवाका तेषां कारूण्यं करुणाजनकं विलपितं यत्र तेषु 'भोयण तणमंडिएम' अवनततृणमण्डितेषु अवनतानि=अत्युन्नतत्वान्नम्रीभूतानि यानि तृणानि तैःमण्डितेषु-शोभितेषु रमणीयहरितणावलिशोभासम्पन्नेषु 'द. रपयंपिएसु' द१रमजल्पितेषु= दर्दुराः मण्डूकाः, तैःशब्दितेषु 'संपिडिय दरियभमर-महुकरि-पहकर रिलिंतमत्तछप्पय कुमुमासवलोलमहुरगुंजंतदेसमाएमु' संपिण्डितर्पितभ्रमरमधुकरीप्रकरपरिलीयमानमत्तषट्पदकुसुमासबलोलमधुरगुञ्जदेशभागेषु-संपिण्डिताः एकत्रीभूताः दृप्ताः गर्विताः ये भ्रमरा मधुकर्यश्चतेषां प्रकरा: समूहाः येषु ते तथा परिलीयमानाः संश्लिष्यमाणाः मत्ता ये पटपदाः भ्रमरास्ते, कुसुमासवलोलाश्चेति तयोःकर्मधारयः, तैः मधुरं यथा स्यात्तथा गुञ्जन्तः शब्दायमाना देशभागा यत्र तेषु उपवनेषु। अनोपनम्य कोकिलादि शब्दविशिष्टत्वं प्रदर्शितम्। 'परिसामियचंदमूरगहगणपणट्ठ नक्खत्त तारगपहे' परिश्यामित चंद्रमूर्यग्रहगणपणष्टनक्षत्रतारकपभे, इदमम्बर(उद्दायतरत्तइंदगोवयथोवयकारुन्नविलविएसु) उद्दायंत-सुन्दर-इन्द्रगोपनामक कीट विशेष एवं स्तोकको-चक्रवाको-के करुणा जनक विलापो से उनके विशिष्ट होने पर, (ओयण तण मंडिएसु) तथा अति उन्नत होने के कारण नम्रीभूत हुए तृणों से उनके शोभा संपन्न होने पर (दपुर पयाँपियेसु) तथा ददुरों (मेंडक) के आरावों से-उनके युक्तहोने पर (सपिडियदरियभमरमहुकरिपहकरपरिलिंतमत्तछप्पय कुसुमासवलोलाहुर गुर्जत देसभाएसु) तथा मदोन्मस भ्रमर और भ्रमरियों के समूह से एवं कुसुमामव के पान में चंचल बने हुए उन्मत्त भ्रमरो को झंकार से उन उपवनों के प्रदेश शब्दायमान होने पर (परिसामियचंदमूरगहगणपणन-- क्वत्ततारगपहे) तथा श्याम मेघ से अच्छादित होने के कारण जिसमें तरत्तइंदगोवयथोवयकारुन्नविलविएसु) सु४२ धन्द्रगोपा (मे श्रीविशेष) द्वारा तभ०८ ४२ विमा५ ४२त. या मायायायुक्त थया, (ओयणतगमंडिएसु) भूम या डावाने साधनायेनमेवा तयाथी तमाशालित थया(दरपयांपियेसम्यान माथाशहित थया (सपिडियदरियभमरमहकरिपहकरपरिलितमत्तछप्पयकुसुमासवलोलमहुरगुंजतदेसभाएसु) यायो महान्मत्त लभ अने लभરીઓ તથા પુષ્પાસના પાન કરવાથી ચંચળ તેમજ ઉન્મત્ત ભમરાઓના ગુંજારવ દ્વારા शम्हायभान थया, (परिसामियचंद सूरगहगणपणनक्खत्ततारगपहे)मने २माश પ્રદેશ શ્યામ મેઘદ્વારા ઢંકાએલે હેવાને કારણે જેમાં સૂર્ય ચન્દ્ર અને For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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