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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका सू. १२ अकालमेघदोहदनिरूपणम् १६७ तलस्य विशेषणम्, परिश्यामिता श्याममेघाच्छादनेन कृष्णवर्णीकृताः चन्द्र सूर्यग्रहगणाः, पुनः प्रणष्टा नक्षत्र तारका प्रभा यत्र तस्मिन्, अतिकृष्णमेघाच्छादनेन चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रप्रभारहिते, 'इंदाउह बद्धचिंधपट्टसि' इन्द्रायुधबद्धचिहपटे-इन्द्रायुधः इन्द्रधनुरेवघद्धः चिह्नपटो-ध्वजपटो यत्र तस्मिन् इन्द्रधनुर्युक्ते, अंबरतले आकारुतले, पुनः कीदृशेऽरतले ? इत्याह-'उड्डीणयलागपंतिसोभंतमेहविदे' उडीनबलाकापक्ति-शोभमानमेघटन्दे-उशीनाभिः वलपंक्तिभिः शोभमानं मेघ वृन्दं यस्मिन् तस्मिन्गगनतले, प्राउट्कालस्य विशेषणमाह-तथा-'कारंडगचक्कवायकलहंस उम्सुयकरे'कारण्डकचक्रवाकफलहंसौत्सुक्यकरे-कारण्डका-भरद्वाजप. क्षिणः, चक्रवाकाः 'चकवा' इति भाषायां, कलहंसा: राजहंसो तेषां मानस परोघरममनं प्रति औत्सुक्यकरे 'पाउभमिकाले' पाटपिकाले वर्णसमये सम्माप्ते सति या मातरः पाया' स्नाताः कृतस्नानाः 'कयवलिकम्मा' कृतबलिकर्माणः, दुःखस्वमदोषनिवारणाय कृतकौतुकमंगलपायश्चित्ताः किं तत्-किमधिकेन पहिले चन्द्र मर्य एवं ग्रहगण श्यामवर्ण से विशिष्ट जैसे बने और पश्चात् जिसमें नक्षत्र एवं तारकों की प्रभा प्रणष्ट हो गई-अर्थात् अत्यन्त मेघों से आवृत होने के कारण चन्द्र, सूर्य, ग्रह-और नक्षत्रों की प्रभा जहां बिलकुल नही दिखलाई पडती है-(उङ्कीणबलागपंतिसोभंतमेह विदे) तथा उडते हुए बलाका (पगले) पक्षियों की पंक्ति से जिसमें मेघान्द शोभायमान हो रहा है ऐसे (अंघरतले) भाकाश प्रदेश के होने पर (भारंडगचक्कवायकलहंस उस्सुयारे) तथा जिसमें भारंड पक्षी, चक्रवाक और राजहंमो में मोनस सरोवर में जाने का भाव भर दिया गया है ऐसे (पाउसंमि काले संपत्ते) वर्षाकाल के आजाने पर (ण्हायाओ कयबलिकम्माओ कयकोठयमंगलपायच्छित्ताओ) जो माताएँ स्नानकर तथा दुःस्वप्न दोष के निवारणार्थ कौतुक मंगल एवं प्रायश्चित्त कर्म आचरित ગ્રહ પહેલાં તે શ્યામવર્ણ વિશિષ્ટ થયા અને ત્યારબાદ નક્ષત્રો અને તારાઓની પ્રભા સંપૂર્ણપણે નાશ પામી એટલે કે શ્યામ મેઘદ્વારા ઢંકાએલા હોવાને લીધે સૂર્ય, ચંન્દ્ર भने अडानी प्रen oni तदन माती नथी. [उडीय बलागपंतिसोभंतमेहविंदा ssal मलायोनी पतिथी शम्मेदा पाय 43 शामतु [अवरतले] सुंदर माश थयु त्या२. भारंडगचक्कवायकलहंसउस्मुयकरे मार, या भने । सोमा भानसशक्२ १२३ ४वाना लायो उत्पन्न ४२ना२ पाउसंमिका ले संपत्ते] व माव्यो. (हायाओ कयवलिकम्माओ कयकोउयमंगल पायच्छित्ताओ) मावा सभये २ भातामा स्नान शने मराम स्वमयी उत्पन्न દેષના નિવારણ માટે કૌતુક મંગળ અને પ્રાયશ્ચિત્ત કરે છે. અને તેથી (fસે)વધારે શું For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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