SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निरुक्त कोश २३१. आवट्ट (आवर्त) आवर्तन्ते - परिभ्रमन्ति प्राणिनो यत्र स आवर्त :। (आटी प ६२) जिसमें प्राणी परिभ्रमण करते हैं, वह आवर्त संसार है। २३२. आवट्टण (आवर्त्तन) आ--मर्यादया वर्त्तनमावर्त्तनम् । (नंटी पृ ५१) ___ मर्यादापूर्वक वर्तन करना आवर्तन है। २३३. आवनपरिहार (आपन्नपरिहार) आपन्नेन प्रायश्चित्तस्थानेन परिहारो वर्जनं साधोरिति गम्यते आपन्नपरिहारः । (व्यभा २ टी प ११) प्राप्त प्रायश्चित्त का परिहार करना आपन्नपरिहार है। २३४. आवरण (आवरण) आवियते ---आच्छाद्यतेऽनेनेत्यावरणम्। (प्रसाटी प ३५६) जो आच्छादित करता है, वह आवरण है। २३५. आवसहिअ (आवसथिक) आवसहेसु वसंतोत्यावसहिकाः । (दश्रुचू प ६१) जो आवसथ/धर्मशाला में वास करते हैं, वे आवसथिक (तापस) हैं। २३६. आवस्सग (आवश्यक) समणेण सावएण य, अवस्स कायग्वयं हवइ जम्हा । अंतो अहोनिस्सिस्स य, तम्हा आवस्सयं नाम ॥ (विभा ८७३) जो प्रातः और सायं श्रमण और श्रावक के द्वारा अवश्यकरणीय है, वह आवश्यक प्रतिक्रमण है। आ वस्सं वा जीवं करेइ जं नाणदसणगुणाणं। (विभा ८७५) जो गुणों को आत्मा के वशवर्ती करता है, वह आवश्यक है। जदवस्सं कायव्वं तेणावस्समिदं । (विभा ८७४) अवश्यं भाविवाद वाच्यत्वाद्वाऽऽवश्यकम् । (स्थाटी प २१८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy