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________________ निरुक्त कोश १४०. असंलोय (असंलोक) न विद्यते संलोको-दर्शनं वृक्षादिच्छन्नत्वाद्यत्र परस्य तदसंलोकम् । (प्रसाटी प २०४) आवरण के कारण जहां कुछ दिखाई न दे, वह असंलोक है । १४१. असंविभागि (असंविभागिन्) असंविभयणसोलो असंविभागी। (दअचू पृ २१८) जो सम विभाग नहीं करता, वह असंविभागी है । १४२. अस्स (अश्व) अश्नाति अश्नुते वा अध्वानमिति अश्वः । (उचू पृ १३२) जो मार्ग को खा जाता है/पार कर जाता है, वह अश्व है। जो मार्ग को व्याप्त कर लेता है, वह अश्व है । १४३. अहाकम्म (आधाकर्मन्) साधुं प्रधानकारणमाधाय-आश्रित्य कर्माण्याधाकर्माणि । (सूटी २ प १२३) साधु को प्रधान कारण मानकर किये जाने वाले पचनपाचन आदि कार्य आधाकर्म हैं। १४४. अहासंविभाग (यथासंविभाग) अहत्ति—यथासिद्धस्य स्वार्थनिवर्तितस्य अशनादेः समितिसङ्गतत्वेन पश्चात्कर्मादिदोषपरिहारेण विभजनं साधवे दानद्वारेण विभागकरणं यथासंविभागः । (उपाटी पृ ५३) (ख) 'असुर' के अन्य निरुक्तअस्ताः प्राच्याविताः देवैः स्थानेभ्यः। जो देवों द्वारा स्थानच्युत किये जाते हैं, वे असुर हैं। अ सुरताः स्थानेषु न सुष्ठुरताः स्थानेषु चपला इत्यर्थः।। जो अच्छे स्थानों में आनन्द नहीं लेते और चपल होते हैं, वे असुर हैं। असुः प्राणः तेन तद्वन्तो भवन्ति रो मत्वर्थे । (आप्टे पृ २६५) जो असु/प्राणवान् होते हैं, वे असुर हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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