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________________ २४ निरुक्त कोश १३०. अवदालि (अवदारिन्) अवदारयति शकटं स्वस्वामिनं वा विनाशयतीत्येवंशीलोऽवदारी। (उशाटीप ५४८) ___ जो स्वामी और शकट का अवदारण/विनाश करता है, वह अवदारी/दुष्ट बैल है। १३१. अवमाण (अवमान) अवमीयते—परिच्छिद्यते खाताद्यनेनेति अवमानम् । (अनुद्वामटी प १४२) जिसके द्वारा परिखा आदि का माप किया जाता है, वह अवमान है। १३२. अवलावि (अपलापिन्) अपलपति गूहतीत्येवंशीलोऽपलापी। (व्यभा ३ टी प १८) जो अपलपन करता है-छिपाता है, वह अपलापी/असत्यभाषी है। १३३. अवहि (अवधि) अवधीयते इति अधोऽधो विस्तृत परिच्छिद्यते, मर्यादया वेति । (आवहाटी १ पृ ५) जिससे उत्तरोत्तर विस्तार से जाना जाता है, वह अवधि (ज्ञान) है। जो अवधि/सीमाबद्ध ज्ञान है, वह अवधि (ज्ञान) है। १३४. अवाय (अपाय) अप अयः-सामस्त्येन परिच्छेदोऽपायः। (नंटी पृ १४५) जो सम्पूर्णरूप से अवबोध होता है, वह अपाय/निश्चय (ज्ञान) है। १३५. अवायदंसि (अपायदर्शिन्) अपायान्–अनर्थान् पश्यतीत्येवंशीलः, सम्यगनालोचनायां वा दुर्लभबोधिकत्वादीन् अपायान् शिष्यस्य दर्शयतीति अपायदर्शी । (स्थाटी प ४०६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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