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________________ २६६ निरुक्त कोश १५७१. समवसरण (समवसरण) समवसरंति जेसु दरिसणाणि दिट्ठीओ वा ताणि समोसरणाणि । (सूचू १ पृ २०७) जहां अनेक दर्शन/दृष्टियां समवसृत होती हैं, वह समवसरण २५७२. समवाय (समवाय) जीवा समासिज्जंति समं आसइज्जति । समं ति–ण विसमं, जहावत्थितं अनुनातिरित्तं इत्यर्थः। आसइज्जति-आश्रीयंते बुद्ध्या ज्ञानेन गृह्यतेत्यर्थः । (नंचू पृ ६४) जिसमें ज्ञान या बुद्धि के द्वारा जीव आदि पदार्थों का यथार्थ आकलन किया गया है, वह समवाय (सूत्र) है। १५७३. समादाण (समादान) समादीयते कर्म एभिरिति समादानानि । (जीटी प १२१) जिनके द्वारा कर्मों का आदान/ग्रहण किया जाता है, वे समादान कर्म-हेतु हैं। १५७४. समास (समास) भिण्णपयसमसणं समासो। (दअचू पृ ७) जो भिन्न पदों को समस्त/संयुक्त करता है, वह समास है। १५७५. समाहिमण (समाधिकमनस्) समेन वा उपशमेन अधिकं मनो यस्य समाधिकमनाः । (प्रटी प १११) जिसका मन सम/उपशम में अधिक आकृष्ट है, वह समाधिक मना/समाहितमना है। १५७६. समाहिमण (समाहितमनस्) सम-तुल्यं रागद्वेषानाकलितं आहितं- उपनीतमात्मनि मनो येन स समाहितमनाः। जिसका मन समत्व में लीन है, वह समाहितमना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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